बलीवर्द हूं...
मुझे कुडें के ढेर पर
छोड़ दिया
इस ऋषिओं की
देवभूमि पर
जहां मेरे लिये होते थे
पुरश्चरण
तपोवन में
चिखते है वो
मंत्र......
जो मेरे लिये गढित थे।
व्यथित है वो
ऋचाएं ....
जिसमे मुझे
उच्चता प्राप्त है..
रोती है वे कविताएं
जहां मुझे
बहुत आध्यात्मिक
ठहरा दिया है..।
शिवालय
जहां मेरे सानिध्य में
होते है रूद्राभिषेक
वे अचंभित है!
बलीवर्द हूं
आज बल खो चुका अपना
यांत्रिकता के दौर में!
क्या तथाकथित
पूजित था इस सृष्टि का ?
हमेशा प्रतीक्षा में रहता पूजने की आज
पाषाण नंदी के समीप
मैं पार कर चुका हूं
विरह की संपूर्ण सीमाएं
संवेदनहीन मानव की दृष्टि में
आज का विज्ञान
बन बैठा मेरे काल का
तड़प प्रतीक
तुम्हारे सब के सब प्रतीक रुद्ध हो गये
डॉ नवीन दवे मनावत
उत्कृष्ट रचना
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