साहित्य चक्र

25 February 2017

  विलुप्त होती, हमारी बोली..।

मारा देश विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओं का देश माना जाता हैं। यहां हर राज्य की अपनी - अपनी संस्कृति और अपनी - अपनी बोलियां हैं। जिसमें हमारा उत्तराखंड ( देवभूमि ) भी है। जो अपनी संस्कृति के लिए पूरे भारतवर्ष में जाना जाता है। वहीं आज हमारे देश की कई भाषाएं विलुप्त होती दिख रही हैं। जिसमें हमारी उत्तराखंड की भी कई भाषाएं शामिल हैं। आइये आपको बताते है। हमारे उत्तराखंड में कितनी बोलियां (भाषाएं) बोली जाती हैं। सन् 1906 से लेकर 1927 तक चले 'जार्ज गियर्सन'  की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में कुल 13 भाषाएं बोली जाती हैं। जिसमें गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, जौनपुरी, जौहारी, रवाल्टी, बांगडी, माच्छार, राज़ी, जाड़, रंग ल्वू, बुकसाणी, थाल हैं। जो उत्तराखंड की कई स्थानों में बोली जाती हैं। जिसमें कुमांऊनी  और गढ़वाली उत्तराखंड की प्रमुख भाषा हैं। कुमांऊनी भाषा कुमांऊ मंडल तो गढ़वाली भाषा गढ़नवाल मंडल में ज्यादा बोली जाती हैं।  

आज उत्तराखंड में हिंदी और अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव से कुमांऊनी और गढ़वाली भाषा विलुप्त होती जा रही हैं। जो वहां की संस्कृति के लिए एक विशाल खतरा है। वैसे कुमांऊनी और गढ़वाली भाषा हिंदी की सहायक भाषा है। वैसे आपको बता दूं, कि कुमांऊनी भाषा देश की   325 मान्यता प्राप्त भाषा हैं। जो आज विलुप्त होने की कगार पर है। कुमांऊनी भाषा देवनागरी लिपि की भाषा है। जो देवनागरी में लिखी जाती है। वहीं यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार इन भाषाओं को संरक्षण की जरूरत है। जिसका मुख्य कारण लोगों में सोशल मीडिया और आधुनिक होना है। वहीं कुछ विशेषज्ञ का कहना है, कि जिसका एक कारण पलायन भी है। क्योंकि रोजगार की कमी के कारण यहां के युवा बड़े शहरों की ओर भाग रहे है। जिससे उन्हें अपनी भाषा छोड़ अंग्रेजी, हिंदी आदि भाषा अपनानी पड़ती हैं। जो यह दर्शाती है, मजबूर होकर लोग अपनी भाषा छोड़ रहे हैं। अगर उत्तराखंड को अपनी ये भाषाएं बचाई रखनी है, तो यहाँ के युवाओं को आगे आना होगा। जिससे यहां के युवाओं को एक नया जोश मिलेगा। वैसे केंद्र सरकार को भी इस विषय में सोच-विचार करने की जरूरत है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो, ये सब भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी। जिससे हमारी संस्कृति में असर पड़ेगा। हम आधुनिकता के चलते अपनी संस्कृति होते जा रहे है। जो हमारे समाज के लिए कलंक साबित हो रहा है। क्यों हम अपनी संस्कृति छोड़े या खोए..?

                                       संपादक- दीपक कोहली       


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