साहित्य चक्र

30 May 2023

कविताः घर है तुम्हारा



संँभाल लो ! घर संँवार लो ! 
घर है तुम्हारा।

बड़े नाजुक होते हैं दिल के रिश्ते, 
तुम इन्हें निभा लो! 
धीरे-धीरे बंद मुट्ठी में रेत की तरह फिसल जाएगा, 
मन में प्रायश्चित के सिवा कुछ भी नहीं बचेगा , 
अपनों से कैसा शिकवा ? 

तुम्हारा है परिवार , 
तुम इसे बेगाना न समझो ! 

एक दूसरे से प्रेम कर लो! 
चार दिन की है जिंदगानी , 
खाली हाथ आए हैं खाली है जाना
सब कुछ धरा पर रह जाएगा , 

सामंजस्य बिठा लो ! 
मायके से ज्यादा ससुराल है प्यारा , 
अपना के देखो  तुम एक बार , 
प्रेम करते हैं सभी तुमसे, 
थोड़ा मान-सम्मान इन्हें दे कर देखो, 
मोम की तरह हृदय है इनका, 
तुम इनकी भावनाओं से खेलना छोड़ो !

संँभाल लो! सँवार लो ! 
घर है तुम्हारा।


                                          - चेतना प्रकाश चितेरी


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