साहित्य चक्र

28 September 2019

किस्तों में जैसे मर रही हूँ ।

  " दर्द की इन्तिहा "

तिल तिल के मैं जी रही हूँ ,
किस्तों में जैसे मर रही हूँ ।
रह रह के मुझे रुलाते  हो ,
क्यों इतना मुझे सताते हो ।

कब तक रहूँ ऐसे तड़पती ,
पल पल रहूँ मैं बिखरती ।

अपना बना छोड़ जाते हो,
क्यों दिल मेरा  दुखाते हो।

जब भी पास मैं आना चाहूँ ,
अपना तुझे बनाना चाहूँ ।
बेज्जत कर दूर भगाते हो ,
क्यों ऐसे तन्हा छोड़ जाते हो।

हर ख़ुशी छोड़ दी तेरे लिए ,
पार कर दी हर हद तेरे लिए।

मुझे ही मेरी हद समझाते हो,
क्यों अब रुसवा कर जाते हो।

खुद से ज्यादा विश्वास किया ,
अपना सब कुछ निसार दिया।
मुझको अजनबी बनाते हो ,
क्यों इतना भाव अब खाते हो ।





सारे ख्वाबो को तोड़ दिया ,
नये ख्वाबो को जोड़ लिया।
सारी उम्मीदों को छुड़वाते हो,
क्यों मेरे ही अश्क बहाते हो।

उलझन को तेरी मैने सुलझाया,
तूने मुझको मुझमे ही उलझाया।
मुझको वादों में बांध जाते हो ,
क्यों अपने सारे वादे भूल जाते हो।


                                                       शशि कुशवाहा


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