साहित्य चक्र

28 September 2019

श्यामो देवी की पीड़ा


फोन की घंटी घनघना हुठी, श्मामो देवी हड़बड़ाहट में गैस चूल्हे की गैस बंद करना भूल गई और बेटे सुबोध से फोन पर बतियाने लगीं। आज ठीक छ: महीने बाद सुबोध का फोन आया है। उनकी मुश्किल से पाँच मिनट बात हुई होगी कि तभी चूल्हे पर रखी सब्जी लगने की बू श्यामों देवी की नाक तक पहुंच गई।


‘हाँ... बेटा! फोन मती काटियो, लगता है सब्जी जल गई है, चूल्हे की गैस बंद कर दूँ ।’

जब पुनः बात शुरु हुई तो सुबोध ने अपनी माँ श्यामो देवी को सलाह दी -
‘माँ तुम घर में एक नौकरानी क्यों नहीं रख लेती, मैं पैसे तो हर महीने बराबर भेज रहा हूँ।’ 

श्यामो देवी कुछ बोलती तब तक उनकी आँखों से आंसू टपक पड़े, गला भर आया फिर किसी तरह अपने आपको संभालकर बोलीं -

‘बेटा... जब तुम्हारे पिताजी थे तब वे हर खुशी के मौके पर बाहर खाना खाने की जिद करते थे, पर मैं कभी उनके साथ बाहर खाना खाने नहीं गई। पता नहीं किस मन से बनाते होंगे वे लोग खाना और फिर कहते हैं ना जैसा खायो अन्न वैसा भयो मन। इसलिए मुझे किसी नौकरानी-वौकरानी के हाथ का खाना नहीं खाना।’

सुबोध बस हूँ-हाँ करता हुआ सारी बातें सुने जा रहा था। बोल कुछ भी नहीं रहा था।

‘और बता बेटा... मेरा पोता ध्रुव कैसा है, बहू कैसी है ?’

‘सब ठीक हैं माँ... मैं जल्दी ही इंडिया आऊंगा तुमसे मिलने। वो थोड़ा तुम्हारी बहू की तबियत ठीक नहीं रहती है, इसलिए ध्रुव की देखभाल मुझे ही करनी होती है। अच्छा ठीक है माँ फोन रखता हूँ।’ बोलकर सुबोध ने फोन काट दिया।

बेचारी श्यामो देवी सोच रहीं थी क्या यही दिन देखने के लिए उन्होंने सुबोध को पढ़ा-लिखाकर इंजीनियर बनाया था और विदेश भेज दिया। काश अगर वे (श्यामो के पति) जिंदा होते तो इतनी घुटनभरी जिंदगी न जीनी पड़ती। बेटा पैसे भेजकर अपने कर्त्तव्य की पूर्ति कर रहा है और अपनी बीवी गौरी मैम के साथ वहीं का होकर रह गया है। तभी श्यामो देवी को चूल्हे पर रखी सब्जी की याद आई और वे खाना बनाने में लग गईं...।

                                                  - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 


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