आज पता नहीं क्यों , इतना याद आ गया
पिता का साया और मां का आंचल।
तरस रहा है मन,मचल रहा है मन
मिलने को दोनों से आतुर
हो रहा है मन विचलित
हर सुख और दुख के साक्षी रहे
पर आज नहीं हैं पास मेरे।
पिता बैठे हैं उस अंबर पर
मां है कोसों दूर
सहज नहीं है मिल पाना उनसे
समझ न पाया ये मन मजबूर।
कभी घर की देखभाल
कभी पति और बच्चों की चिंता
रह जाती है एक बेटी इन्हीं बन्धनों में बंध कर
मन होता है उसका भी कि
दौड़ कर पकड़ ले पिता का हाथ
छिप जाए मां के आंचल में
उसको भी होती है
एक स्नेहिल छांव की जरूरत
बड़ी हो गई तो क्या
एक बच्चे जैसा दिल उसमें भी तो है
पर समझ कहां पता कोई
व्यथा उसके मन की
क्यूंकि समेटे अपनी हर इच्छा को
मन ही मन में
निरन्तर लगी जो रहती है
अपने पथ पर,
कभी मुस्करा कर, कभी हंस कर
कभी बच्चों के साथ बच्चा बन कर
कभी पता नहीं क्या-क्या कर कर।
तनुजा पंत
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