चवन्नी, अठन्नी के पीछे भागते भागते
रुपयों की तमन्ना में झूलने लगे।
और गुम हुए इतने इसकी चकाचौंध में ,
कि जिंदगी की हैसियत भूलने लगे
ना समय है ना ,फिक्र है अपनों के बाजार में
पैसे हैं तो रिश्ते खुद ब खुद बन जातें हैं ,
वरना अपने भी रूठ जाया करते हैं ,
बड़े नाजुक होतें है कांच की तरह रिश्ते ,
एक हल्की सी ठेस से टूट जाया करते हैं।
ना जाने ये पैसा भी क्या चीज है ?
अपनों को भी दुश्मन बना देता है।
कभी कर देता है सौदा रिश्तों का ,
कभी रिश्तों को दगा देता है।
उम्र गुजर जाती है इस तरह कमाते हैं ,
पैसे की चाह में जीने का समय कहां पातें हैं ?
एक दिन मौत इस तरह आ जाती है कि
सब यहीं रह जाता है और खाली हाथ चले जातें हैं।
लेखिका- मंजू सागर
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