मेरा प्यारा शहर
कुछ दिनों से
पाँव भारी नारी-सा लगता है।
जिंदगी अचानक कभी ठिठक जाती
सड़क पर
तो कभी रेल गाड़ी
प्लेटफार्म से निकल जाती
बगैर ह्विसिल के।
शहर की कोख में
आने वाले प्रलय के कमजोर बालपन,
चेहरे पर मासूमियत की परत,
ऊपर से सैंकड़ों मर्दों के नाखून
और दांतों की निशानियाँ,
दुष्कर्म और पाशविक रोमांच के
काले धुएँ में अब
डूब गया है मेरा प्यारा शहर।
इस बिखरे हुआ शहर की
चेतना के तट पर अकेला मैं
बाँसुरी बजा रहा हूँ
ओंकार की धून में।
ओड़िआ से अनुवाद- राधू मिश्र जी
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