मैं किताब हूं,
सुनाना चाहती हूं अपनी आत्मव्यथा,
मैं आज भी , गर्द में दबी हुई ,
तुम्हारी अलमारी में कराहती हूं,
एक मुद्दत हुई मुझे इसमें कैद हुए,
वो गुलाब के फूल जो तुमने,
मुझमें छुपाकर रखे थे,
उन्हें मरे हुए एक अरसा गुजर गया,
उन मुर्दों को गोद में लिए,
बैठी हुई मैं किताब हूं ।
सिसकती हूं मैं, तुम्हारी अलमारी में,
कभी तो आओ, मुझे बाहर निकालो,
जानती हूं अब मेरी जगह,
अब आधुनिक उपकरण ने ले ली है ?
पर फिर भी मैं जानती हूं,
तुम नहीं खा पाओगे उसकी कसम,
जैसे मेरी खा लिया करते थे,
तुम्हारे आंसुओं को मैं बनकर सोख्ता,
अक्सर सोख लिया करती थी,
शायद तुम मुझे भूल गए,
उसी सीलन में दबी हुई मैं किताब हूं।
तुम्हारे कुछ राज,
आज भी मेरे पिछले पन्नों पर लिखें हैं,
मेरे गर्भ में छुपे हैं कुछ तुम्हारे अनमोल लम्हें
तुम्हें अब पढ़ने की फुरसत ही कहां है ?
सिर्फ शोकेस में सजने के लिए मैं किताब हूं ।
लेखिका- मंजू सागर
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