ठंडी हवाओं में सिकुड़ता हुए नंगा बदन ,
तन पर मैला कुचला सा कुर्ता ,
नंगे पैर , ठिठुरती हुई अभिलाषाएं ,
उसकी खामोशी कुछ कहकर चली जाती है …..
और मैं खोई सी कहीं उसे समझने की कोशिश करती हूं
सड़क पर गाड़ी साफ करता हुआ बचपन ,
मुठ्ठी में लिए कुछ उम्मीदों के सिक्के ,
फिर भी एक गुब्बारे के लिए तरसती आंखें ,
कितना मासूम सा है वो ,
बिना कहे समझा देता है अपना दर्द ,
बेशक वह खामोश है , पर उसके दिल का शोर ,
हजारों सवाल पैदा करता है ।
खाने के एक कौर के लिए वह , ना जाने कितनी बार
हथेलियां फैलाता है ,
रोज एक सपना लेकर फुटपाथ पर सोता है ,
उसी को ओढ़ता है और उसी को बिछाता है ।
वह फिर भी खामोश है ……
उसे उम्मीद है कि जल्दी ही सर्दियां गुजर जाएंगी
गर्मी तो बिना कपड़ों के भी कट ही जायेंगी ,
लेकिन कुछ पैसे बचे तो मैं गुब्बारे खरीदूंगा !
अपने बचपन को थोड़ा सा मैं भी जी लूंगा ।
जीवन शून्य लगता है , जब सपना टूट जाता है ,
किस तरह अभावों में रहकर
एक बचपन का दम घुट जाता है
लेखिका- मंजू सागर
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