उसका प्यार के साथ मेरे जीवन में आना।
था न मेरी खुशी का फिर कोई ठिकाना।
मन ही मन हर पल मैं मुस्कुराती रहती,
मानों था कोई जादू जैसे उसकी बातों में।
खोई सी रहती मैं सदा उसके ख्यालातों में।
गुज़ार लेती थी दिन मैं जैसे तैसे कर भी,
मगर बैचैनी बहुत बढ़ जाती थी मेरी रातों में।
मगर बहती नदी सा था वो कहाँ रुक पाया।
निकल गया आगे कहीं और जा वो समाया।
मैं ही न समझी उसकी मंज़िल कहीं और थी,
अपनी बातों से इतना जो था मुझको भरमाया।
एक छोटे से पत्थर ने कहाँ नदी से दिल लगाया,
नदी की फितरत है बहना खुद ही खुद को सताया।
वो तो न जानें कितने पत्थरों से मिलती है राह में,
मगर बहती तो सदा ही सागर से मिलने की चाह में।
मैं भी वही नदी का एक छोटा सा पत्थर निकली।
जो एक बहती नदी के प्यार में खुद ही गई छली।
न था मालूम मुझे कहाँ नदी मुड़कर देखती है पीछे,
मेरे जैसे कई पत्थरों से टकराती वो तो सदा बहती।
लेखिका- कला भारद्वाज
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