मिथिला नाम सुन कर तुरंत याद आ जाता है कि कथाओं के अनुसार महाज्ञानी जनकराज जिस राज्य के राजा थे, उसका नाम था मिथिलानगरी। सीताजी जिस भूमि से प्रकट हुई थीं, वह पवित्र स्थल यानी मिथिला। भगवान राम ने शिवजी के धनुष को जहां तोड़ा था, वह भूमि यानी मिथिला। राम-सीता के विवाहमंडप का स्थल यानी मिथिला।
आज भी इस इलाके के लोकगीतों में रामायण की अलग कथा सुनने मिलती है। उनमें सीताजी को विदा नहीं किया जाता, बल्कि भगवान राम को घरजमाई बताया जाता है। मिथिलावासी प्रेमपूर्वक दलील करते हैं कि सीताजी की विदाई करेंगे तो उन्हें वनवास जाना होगा, वे नहीं चाहते कि मिथिला की बेटी को वन जाना पड़े। इस तरह के प्रेमवाला हृदय यानी मिथिला।
कहा जाता है कि इस समय उत्तर बिहार के दरभंगा और उसके आसपास के इलाके में मिथिलानगरी थी। बिहार का पूरा उत्तरी इलाका मिथिला से जाना जाता है। तमाम विद्वान तो यहां तक दावा करते हैं कि राजा जनक की मिथिलानगरी का इलाका आज के बिहार-झारखंड से लेकर हिमालय के रेंज में काफी दूर तक था और उसमें आज का नेपाल भी शामिल था।
एक समय आध्यात्मज्ञान के कारण भारत वर्ष में विख्यात मिथिला की मूल पहचान धीरेधीरे फीकी पड़ती गई। जिस मिथिला का उल्लेख प्राचीन कथाओं में बहुत अदब से लिया जाता है। यह इलाका बाद में अलग-अलग प्रांतों का हिस्सा बन कर रह गया। एक समय बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा बना यह इलाका बाद में बिहार राज्य का हिस्सा बन गया। मिथिला की लोककलाएं, लोकगीत और संस्कृति में इसका असर रहा। परंतु ये मेहनती मिथिलावासियों ने मार्डन समय में जो नई पहचान बनाई है, उसका फल यानी मखाना।
उत्तर बिहार या मिथिला इलाका यानी दरभंगा, मधुबनी, सुपौल, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, सहरसा, कटिहार ये आठ जिला। अधिक से अधिक इसमें मुजफ्फरपुर और सीतामढ़ी को जोड़ा जा सकता है। इस इलाके में किसान मखाना की खेती करते हैं। मखाना की खेती - इस शब्द का उपयोग टेक्निकली सही नहीं है। खेती होती है एक तरह से कमल की। उसके लंबे प्रोसेस के बाद मखाना मिलता है। मखाना की फसल लेने के लिए इसकी बुआई सामान्य रूप से दिसंबर से फरवरी या मार्च तक की जाती है। अगस्त से अक्टूबर के दौरान इसका बीज पकता है।
इसकी फसल लेने की पद्धति अन्य फसलों की अपेक्षा काफी अलग है। पहली नजर में तालाब लगे इस तरह पांच से सात फुट खोद कर खास मखाना की फसल लेने के लिए तैयार किया जाता है। इसमें हमेशा पानी भरा रहता है। इन खेतों में कमल खिलता है और यही कमल के फूल पकते हैं तो बीज बनता है। यही मखाना का रफ मटीरियल है। कमर तक पानी में खेती करने वाले किसान पानी से बीज इकट्ठा करते हैं और तीन-चार बाल धो कर सुखाते हैं। लंबी और मेहनत लेने वाली इस प्रक्रिया के बाद बीज को गरम कर के फोड़ा जाता है। फोड़ने के बाद जो थोड़ा सफेद और लाल रंग का पदार्थ मिलता है, वही मखाना होता है।
देश में मखाना के कुल उत्पादन में 80-85 प्रतिशत हिस्सा बिहार के इन सीमांचल जिलों का है। देश में मखाना की खेती 13,000 हेक्टेयर में होती थी, जो अब बढ़ कर 35,000 हेक्टेयर में होने लगी है। सरकार ने उत्तम मखाना के उत्पादन के लिए 15,000 किलोग्राम बीज किसानों को दिया है। दुनिया में मखाना की डिमांड लगातार बढ़ रही है। भारत ने उत्तम गुणवत्ता के निर्यात को बढ़ाने का लक्ष्य बना रखा है। इसमें ग्लोबल डिमांड का 90 प्रतिशत भारत पूरी करता है। भारत के अलावा चीन, जापान, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में मखाना की खेती होती है।
देश में मखाना का कुल उत्पादन 1000-1200 करोड़ रुपए का है। अंदाजा है 2023 तक यह उत्पादन 9 से 10 प्रतिशत बढ़ कर 1800-2000 करोड़ रुपए का हो जाएगा। 2023-24 के साल में 2500 करोड़ मैट्रिक टन मखाना निर्यात किया गया था। जबकि सरकार के एक्सपोर्ट के और कुल बाजार के आंकड़े में विरोधाभास नजर आता है। निर्यात की कीमत बहुत कम हो तो भी 2500 मैट्रिक टन की कीमत 1000 करोड़ रुपए हो सकती है।
सुपरफूड मखाना का पुराना से पुराना सबूत लगभग आठ साल पुराना मिलता है। यानी की मनुष्य के अस्तित्व के पहले से पृथ्वी पर कमल की अनेक जातियां थीं। इतिहासकार मानते हैं कि मनुष्य ने 10 हजार साल पहले इन्हें खाना शुरू किया होगा। अब शहरी इलाकों में इसका क्रेज बढ़ता जा रहा है। भून कर या तल कर इसे खाने से वजन घटता है।इसलिए तमाम लोगों ने इसे रूटीन डायट में शामिल कर लिया है। लोग मखाना की खीर या सब्जी भी बनाते हैं।
मखाना की खेती में भी वही मुश्किल है, जो अन्य फसलों में है। किसान को मेहनत के हिसाब से कीमत नहीं मिलती। फुटकर मार्केट में मखाना की कीमत 1500 से 2000 रुपए बताई जाती है। जबकि किसानों को किलो का मात्र 200-300 रुपए ही मिलते हैं। अब तो मखाना उत्पादक किसानों का संगठन भी बन गया है। इसलिए स्थिति थोड़ी सुधरी है। वरना प्रति हेक्टेयर लाख रुपए खर्च हो जाते थे और उत्पादन के बाद 25 हजार रुपए मिलते थे। जीआई टैग मिला है, इसलिए इस इलाके के मखाना का विदेश में अच्छा भाव मिलता है।
पर यह भी स्वीकार करना होगा कि निर्यातक जितनी कमाई करते हैं, उतना फायदा घंटों पानी में रह कर कड़ी मेहनत करने वाले किसानों को नहीं मिलता। मखाना बोर्ड बनने के बाद इन किसानों को लाभ हो तो बजट की तमाम घोषणाएं काम की, वरना पानी पर लकीर साबित होंगी।
मिथालांचल का मखाना पोस्ट से मंगाया जा सकता है- मिथिलांचल मखाना उत्पादक संघ नाम का संगठन रजिस्टर्ड हुआ और मिथिला के मखाना को जीआई टैग मिल गया। इसके बाद पोस्ट विभाग ने घर बैठे मखाना पोस्ट करने की सर्विस शुरू की थी। इस संगठन और पोस्ट विभाग के बीच हुए समझौते के अनुसार पिछले तीन सालों से मिथिला का मखाना देश के किसी भी हिस्से में प्राप्त किया जा सकता है। उत्पादन संघ को आर्डर करने से पोस्टल चार्ज के साथ मखाना का पार्सल कुछ दिनों मिल जाता है। ऐसी व्यावस्था की गई है कि बिहार घूमने जाने वाले यात्रियों की सुविधा के लिए किसी भी पोस्ट आफिस से मखाना खरीदा जा सकता है।
मखाना पालिटिक्स के पीछे का गणित- मखाना के किसानों को अगर यह बोर्ड बनाने से फायदा होता है तो इसका सीधा फायदा भाजपा को मिल सकता है। बिहार विधानसभा का चुनाव इस साल अक्टूबर में होना है। उसके पहले बोर्ड बन जाता है तो हजारों किसानों में इसका पाॅजिटिव असर होगा। मखाना पालिटिक्स के पीछे का भाजपा का गणित समझने लायक है। बिहार विधानसभा की कुल 243 सीटों में मिथिला के 8 जिला - मधुबनी-10, सुपौल-5, अररिया-6, किशनगंज-4, पुर्णिया-7, सहरसा-4, दरभंगा-10, कटिहार-7 मिल कर 53 सीटें होती हैं। उत्तर बिहार के मिथिला इलाके में सीतामढी और मुजफ्फरपुर को भी जोड़ दिया जाए तो 65 से अधिक सीटें होती हैं। यह पूरा इलाका मखाना के उत्पादन के लिए जाना जाता है। मखाना का व्यूह कारगर होता है तो भाजपा को कमल की खेती फलेगी।
अलग मिथिलांचल राज्य की मांग- साल 2003 में मैथिली को देश की मान्य भाषा माना गया था। बिहार के 38 जिलों में से 26 जिलों मैथिली भाषा बोली जाती है और राज्य के 12.58 प्रतिशत लोग इस भाषा को जानते हैं। मिथिली संस्कृति की रक्षा के लिए अलग मिथिलांचल राज्य होना चाहिए, यह मांग काफी समय से होती रही है। बिहार की संस्कृति से उत्तर बिहार की संस्कृति थोड़ा अलग है। मैथिली त्योहार, मैथिली कलेंडर अलग है। मैथिली चित्रों का अलग प्रकार है, जो मधुबनी आर्ट के नाम से जाना जाता है।
साल 2018 में बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने अलग मिथिलांचल राज्य की मांग विधान परिषद में की थी। एकाध साल पहले अखिल भारतीय मिथिला राज्य संघर्ष समिति ने मिथिलांचल राज्य की मांग के साथ दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया था। मिथिलांचल राज्य के लिए यह दलील दी जाती है कि जब भाषा के अनुसार राज्यों की रचना की गई तो उसमें मैथिली बोलने वालों की अवसेलना क्यों की गई।
पहली बार 1912 में ब्रिटिश इंडिया के समय बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग बिहार राज्य बना, तब मैथिली भाषी लोगों ने अलग मिथिला राज्य की मांग की थी। साल 1921 में दरभंगा राज्य के राजा रामेश्वर सिंह ने मिथिला राज्य के लिए अंग्रेजों सः मांग की थी। 1936 में बिहार से अलग उड़ीसा राज्य बना, तब भी मिथिला राज्य की मांग हुई थी। 1956 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल से प्रतिनिधि मंडल ने मिल कर मिथिला राज्य की मांग करते हुए उन्हें दस्तावेज सौंपे थे।
मिथिला मखाने को जीआई टैग- उत्तर बिहार के आठ-दस जिला भारत के कुल उत्पादन का 80-85 प्रतिशत मखाना का उत्पादन करते हैं। परिणामस्वरूप बिहार ने मखाना के लिए जियोग्राफिकल इंडिकेशन देने की मांग काफी समय से उठती रही है। जियोग्राफिकल इंडिकेशन उस प्रोडक्ट को मिलता है, जो उस इलाके की महत्वपूर्ण पहचान हो। मखाना का उत्पादन बिहार के अलावा झारखंड, बंगाल, उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में होता है। बिहार को जीआई टैग मिलने से ये किसान नाराज थे।
आखिर मिथिला इलाके के जिलों को ध्यान में रख कर मिथिला मखाना को जीआई टैग देने की बारबार पेशकश होती रही। बिहार भाजपा के नेता और दरभंगा के सांसद गोपाल ठाकुर ने संसद में कई बार यह मुद्दा उठाया था। बिहार एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी की पहल से आखिर साल 2022 में मिथिला मखाना को जीआई टैग मिला था।
- वीरेंद्र बहादुर सिंह
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