वैसे तो लेखकों को समाज का आईना माना जाता है, मगर मेरा मत है कि लेखक भी एक प्रकार के संत ही हैं; जिस प्रकार एक संत होना बेहद मुश्किल है, ठीक उसी प्रकार एक लेखक होना भी संत होना है। संत जीवन भर मोक्ष, सत्य और त्याग के लिए भटकता है। एक लेखक भी प्रसिद्धि के लिए जी जान से कोशिश करता है। कभी-कभी लेखक को उस कोशिश के लिए अपनी इच्छाओं का बलिदान तक देना होता है। यहां मैं आजकल के सोशल मीडिया वाले लेखकों की बात नहीं कर रहा हूं। आजकल के लेखकों की एक नई भीड़ (फौज) बन गई है। इन्हें लगता हैं कि अपना दुखड़ा लिख देना ही लेखक बन जाना है।
लेखक बनना आसान नहीं है, क्योंकि एक लेखक जीवन को जीता नहीं है बल्कि जीवन के अनुभवों को महसूस करता है। नई कहानियों और कविताओं की तलाश में जीवन के अनमोल पलों को लेखक यूं ही बर्बाद कर देता है। संत जीवन की कई जिम्मेदारियां से मुक्त होता है जबकि लेखक जिम्मेदारियां के साथ संत की भूमिका निभाता है। साधु-संत समाज में उतने बदलाव नहीं ला पाएं हैं, जितने बदलाव लेखक लाएं हैं। वैसे भारतीय इतिहास में कई संतों ने बतौर लेखक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जिसमें गुरु नानक जी, रविदास, कबीर दास आदि शामिल हैं।
लेखक ब्रह्मांड का सबसे अनोखा जीव है। कभी बिना कारण उदास रहता है, तो बिना कारण हंसता रहता है। लेखक का स्वयं से शीतकालीन युद्ध चलता है। कभी विचारों से, कभी शब्दों के सागर से, कभी जमाने की तेज़ रफ्तार से तो कभी किताबों के पन्नों से। कई बार तो लेखक अपनी ही कहानियों में मर जाता है और कई बार कलम के सहारे युद्ध भी जीत जाता है। सही मायने में लेखक ही समाज का संत है।
- दीपक कोहली
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