मुर्दों की बस्ती में यहाॅं ज़िंदा कोई नहीं।
आवाज़ हक़ की डर से उठाता कोई नहीं।।
हद पार हो गई है ज़ुल्मों सितम की अब।
किस पर करें भरोसा की अपना कोई नहीं।।
अपने भी अपने अब यहाॅं अपने रहे कहाॅं।
नफ़रत की ऑंधी चल रही अच्छा कोई नहीं।।
मरना है सबको पैदा यहाॅं पर हुआ है जो।
ज़िंदा रहा जहाॅं में हमेशा कोई नहीं।।
ऑंखों में पट्टी बाॅंध के बे-अक़्ल जीते हैं।
ये चार दिन की ज़िंदगी समझा कोई नहीं।।
किसका शिकार हो रहा किसका विकास है।
सब दिख रहा है मुल्क में अंधा कोई नहीं।।
बेख़ौफ़ है दरिंदे ये कैसा निज़ाम है।
इस बे-लगाम भीड़ में इंसाॅं कोई नहीं।।
- निज़ाम फतेहपुरी
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