साहित्य जाति-धर्म, गरीबी-अमीरी से परे वह पारदर्शी दृष्टिकोण का वाहक है जो समाज की हू-ब-हू तस्वीर दर्शाता है। साहित्यकार संवेदनशील होता है उसका हृदय प्राणी मात्र के दुख से दुखी और खुशी से खुश होता है इसीलिए उसकी लेखनी सदैव समाज की विकृतियों, विद्रूपताओं और विसंगतियों पर चलती है। उसका हृदय समाज के कुरूप पहलू को देखकर उद्वेलित होता है और साहित्य सृजन के माध्यम से वह इन पहलुओं पर विरोध दर्शाता है। साहित्य निष्पक्ष और निस्वार्थ होता है यह न्याय और प्रगति के चश्में से ही सबको देखता है इसीलिए साहित्य को 'समाज का दर्पण' कहा गया है। यह कथन चिरकालिक मान्यता इसलिए प्राप्त कर सका क्योंकि हमारे साहित्यकारों ने समय-समय पर हमें समाज का वही रूप वही सत्य दिखाया जो तत्कालिक यथार्थ पर आधारित था। मैथिली शरण गुप्त, निराला आदि का साहित्य सदैव स्वच्छंदता पर अंकुश का कार्य करता रहा, कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद आजीवन समाज में व्याप्त सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, गरीबी, जमींदारी, उपनिवेशवाद पर लिखते रहे। इन साहित्यकारों का साहित्य समाज का वही रूप वही विकार दर्शाता है जो उनके समय में था।
साहित्य सशक्त होता है यह लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ता है, वह साहित्य ही है जो तुलसीदास की चौपाई के रूप में जन-मन तक पहुँच कर लोगों को भगवान श्रीराम से जोड़ता है, यही साहित्य हमें सूरदास के पदों के माध्यम से श्रीकृष्ण से जोड़ता है। साहित्य ही है जो समाज को अच्छाई व बुराई के भेद से परिचित करवाता है। इसी के माध्यम से संस्कृति की पहचान होती है तथा इसी से संस्कृति की उन्नति व अवनति संभव है। लेखनी की तुलना तलवार से इसीलिए की जाती है क्योंकि तलवार में यदि काटने की शक्ति है तो लेखनी में काटने के साथ बाँटने और जोड़ने की भी शक्ति निहित है, इसीलिए साहित्यकार का दायित्व बढ़ जाता है कि वह समाज का अपने साहित्य सृजन के माध्यम से सकारात्मक मार्गदर्शन करे। साहित्यकार स्वतंत्र होता है वह किसी के अधीन साहित्य सृजन नहीं करता इसीलिए उसके इस महती दायित्व की ओर संकेत करते हुए ही मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है कि "साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।" अपने इस कथन के द्वारा वह साहित्यकार को सम्मान और समाजहित का उत्तरदायित्व सौंपते हैं।
साहित्य और राजनीति दोनों साथ-साथ चलते हैं, दोनों का ही कार्य समाज को दिशा प्रदान करना होता है किन्तु राजनीति का लक्ष्य स्वार्थ प्रेरित और साहित्य का ध्येय ‘सर्वेः भवन्तु सुखिनः’ का होता है। राजनीति का परिणाम शीघ्र प्राप्त होता है और अल्पकालिक होता है वहीं साहित्य दूरगामी परिणाम देता है। स्वार्थ निहित होने के कारण राजनीति अधिक फलफूल रहा है तथा लोगों का शिकार कर 'स्वांतः सुखाय' को चरितार्थ कर रहा है। वहीं दूसरी ओर साहित्य उचित मान-सम्मान और पारिश्रमिक के अभाव में आत्म समर्पण करता नजर आ रहा है।
'साहित्य समाज का दर्पण होता है।' वर्तमान में यह कथन औचित्यहीन हो चुका है।
साहित्यकारों की आर्थिक स्थिति सभी को विदित है, ऐसी स्थिति में कुछ साहित्यकार पूर्ण समर्पण से अपने साहित्यिक दायित्व का निर्वहन न करके उस ओर मुड़ जाते हैं जहाँ से उन्हें आर्थिक लाभ तथा सम्मान प्राप्त हो सके इसीलिए चिरकालिक रचनाओं का उत्सर्जन भी दुर्लभ हो गया है और साहित्य की धार भी उतनी पैनी नहीं रह गई जितनी उसे होनी चाहिए, जगह-जगह साहित्यिक संस्थाओं की संरचना तथा पुरस्कार व सम्मान वितरण का दौर चल पड़ा, साहित्यिक संस्थाएँ सरकार से सहायता प्राप्त करती हैं। फिर सरकारी हस्तक्षेप से दूर रहना सम्भव नहीं। सरकार राजनीति का ही पर्याय है फिर साहित्य की इन संस्थाओं में राजनीति की घुसपैठ शुरू हो गई और साहित्य और राजनीति का आपस में विलय हो गया। ऐसी स्थिति में जो संस्था जिस सरकार की सरपरस्ती हासिल करती है उसी के हित की बात कहती है। वयोवृद्ध साहित्यकार युवा राजनीतिज्ञ के पैंरों में पड़ा दिखे तो ऐसे साहित्यकार से किस संस्कृति की रक्षा की उम्मीद की जा सकती है ऐसा दृश्य देखकर तो यही प्रतीत होता है कि चारण युग का साहित्य पुनः जीवित हो उठा हो। वर्तमान समय में यह समाज और देश का दुर्भाग्य ही है कि साहित्य राजनीति को नहीं बल्कि राजनीति साहित्य को दिशा दिखा रही है, साहित्य सम्मान वापसी का दौर इसी बात का उदाहरण है।
जब से साहित्य में राजनीति का हस्तक्षेप प्रारंभ हुआ तब से ही साहित्य से संवेदना का रिश्ता टूटा। संवेदना विहीन साहित्य में ‘सर्वेः भवन्तु सुखिनः’ जैसा संदेश हो ही नहीं सकता है। जब संवेदना नहीं होगी तो आम जन के साहित्य का सृजन भी मात्र कोरी कल्पना ही होगी।
कहने को तो हर साहित्यकार राजनीति से दूरी दर्शाता है परंतु ऐसे होते कम हैं...राजनीति से दूरी दिखाना तो पाखंड है, वे उसके साथ ही राजनीति के फायदे भी उठाना चाहते हैं, इसलिए खुलकर विरोध भी नहीं करते। साहित्यिक मंचों पर भी राजनेता को आसीन करवाना साहित्यकार सम्मान का पर्याय मानते हैं चाहे नेता जी का साहित्य से दूर का भी रिश्ता न हो।
साहित्यकार का समाज में वही स्थान होता है जो शिक्षक/गुरु का विद्यार्थी के जीवन में। जिस प्रकार गुरु का सही मार्गदर्शन विद्यार्थी के जीवन को सशक्त, उज्ज्वल और प्रगतिशील बनाता है उसी प्रकार निष्पक्ष साहित्य भी समाज को प्रगति की ओर ले जाता है। इसीलिए साहित्यकार को चाहिए कि राजनीति को छोड़कर अपने साहित्यिक कर्तव्य को पहचाने और समाज को दर्पण दिखाने वाले साहित्य का सृजन करें। सही मायने में राजनीति पर अंकुश लगाने का कार्य साहित्यकार ही कर सकता है और ऐसा करके वह राजनीति को सही दिशा में मोड़कर समाज हित में कार्य करने को बाध्य कर सकता है।
मालती मिश्रा 'मयंती'✍️
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