साहित्य चक्र

09 June 2024

कविता- बेटी




ये तो भई अपनी-अपनी कमाई है,
लच्छमी रूप में घर मेरे बेटी आज आई है.
कुछ वर्षो का साथ है बस, फिर जाना इसे अपने घर.
ये तो अपनी नहीं पराई है.

पैरों में छुन-छुन के बोल, आँगन में हसी-क्रीड़ा का शोर,
और फीतो में दो चोटियाँ बांधकर,
स्कूल में हमेशा अव्वल नम्बर पर आई है.
पर बेटी को ज्यादा क्या पढ़ाना, यही समाज ने समझाई है.
घर की चुल्हा-चौक देखना, माँ के कामों में हाथ बटाना,
इसी में बेटी की भलाई है.

लड़कपन में कद लंबा होना, रूप रंग में सौंदर्य आना,
बाबा को इसकी बड़ी चिंता सताई है.
बढ़ती बेटी को नहीं रखते ज्यादा दिन घर में,
यही समाज ने सदा सिखाई है.
कहते हैं अब रिश्ते देखना शुरू करदे,
बेटी की ब्याह करके गंगा नहाले,
कंधे में इतना बोझ क्यू बढ़ाई हैं.
लेकिन बेटियाँ कोई बोझ नहीं हैं,
यह उसने कर के दिखाई है.

आज है बेटियाँ डॉक्टर, इन्जीनियर, टीचर, वकील अनगिनत,
उसने अंतरिक्ष में भी छलांग लगाई है.
फिर भी आज भी कुछ स्थानों में,
बिन जाने, बिन परखे वर को, कर दी बेटी की बिदाई है.
जिसके कारण होती उसपर बहुत जुल्म और बुराई हैं.

घर और नौकरी दोनों सम्भालना के साथ,
पत्नी और बहू का फर्ज वह निभाई है.
शराबी पति और झगड़ालू ससुराल में,
पड़ गई उसपे तन्हाई है.

दहेज के लालच और वंश चलाने के लिए बेटे की चाह में,
अत्याचार उसपर अधिक चलाई है.
कहां जाएंगी छोड़ कर सबकुछ,
वह तो मायके और ससुराल दोनों में पराई है.
मायके में भाभी के बोल, लगे ज़हर के घूँट,

बेबस माँ ने कहा,
एक बच्चे के आजाने से संभलते रिश्ते की डोर,
दुख तो सुख की परछाई है.
पर अत्याचार करना और सहना दोनों पाप हैं,
इससे जाने कितने महिलाओं ने जानें गवाई हैं.

किसी से मदद की आश न उसको,
यह तो उसकी खुद की अपनी लड़ाई है.
लेकिन सबकुछ विनाश करने पर अाती,
जब नारी अपने आप में आई है.

तोड़के बंधन रूढ़िवादी समाज का.
एक बंधनमुक्त सशक्त समाज वह बनाई है.
खुद ही देख लो आज नारी..
हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन कर सामने आई है.


- कुमारी संगीता मेहरा



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