साहित्य चक्र

09 June 2024

उदात्त जीवन-मूल्यों के विकास के अभाव में अपूर्ण है शिक्षा


क्या हम वास्तव में शिक्षित हैं? एक शिक्षित समाज में ये प्रश्न पूछना या उठाना कुछ अटपटा-सा लग सकता है लेकिन है ये एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न। क्या बी.ए., एम.ए., बी.एस.सी., एम.एस.सी., एम.फिल., पी.एच.डी., डी.लिट. बी.टेक., एम.टेक., एम.बी.बी.एस., एम.डी. अथवा अन्य डिप्लोमा-डिग्री प्राप्त कर लेना ही शिक्षा है? क्या इन कोर्सेज़ में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाना ही हमारी शैक्षिक योग्यता के स्तर को निर्धारित करने में सक्षम है? क्या एक अदद ख़ूबसूरत सी डिग्री प्राप्त हो जाने अथवा एक भारी-भरकम पैकेज मिल जाने से शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है? इन सब प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए शिक्षा के वास्तविक स्वरूप को समझने की आवश्यकता है।






शिक्षा प्राप्त करना अत्यंत महत्वपूर्ण है लेकिन ये जानना कि हमारी शिक्षा का उद्देश्य क्या हो शिक्षा प्राप्त करने से भी महत्त्वपूर्ण है। यदि हम शिक्षा प्राप्त करते हैं अथवा कोई डिग्री आदि लेते हैं लेकिन उससे हमें अच्छा रोज़गार नहीं मिल पाता अथवा हममें व्यवसाय आदि करने की क्षमता उत्पन्न नहीं हो पाती तो वो शिक्षा बेकार है। साथ ही यदि शिक्षा हमारी योग्यता अथवा प्रतिभा के विकास में सहायक नहीं हो पाती है तो भी ऐसी शिक्षा को उपयोगी नहीं माना जा सकता। मनुष्य के जीवन में संतुलन सबसे अधिक अनिवार्य है।

वह आर्थिक रूप से भी सक्षम हो और साथ ही उसका व्यक्तित्व भी प्रभावशाली हो। प्रभावशाली व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। इसमें व्यक्ति के स्वास्थ्य और बाह्य व्यक्तित्व के साथ-साथ दूसरी अच्छी आदतों का विकास भी सम्मिलित है। यदि व्यक्ति में उदात्त जीवन-मूल्यों का अभाव है तो उसे पूर्ण रूप से शिक्षित नहीं कहा जा सकता। कहा गया है सा विद्या या विमुक्तये। जो हमें मुक्त करे वही विद्या अथवा शिक्षा है। मुक्ति से तात्पर्य है अज्ञान अथवा अशिक्षा से मुक्ति। नकारात्मक भावों से मुक्ति। मनुष्य का एक परम लक्ष्य होता है नकारात्मक भावों से मुक्त होकर आत्म-विकास करना। दूसरों के विकास में बाधा न बनते हुए स्वयं का विकास ही शिक्षा है। शिक्षा के लिए ज्ञान शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। शिक्षा या विद्या की तरह ज्ञान भी विषयों अथवा पदार्थों का नहीं होता। बाह्य जगत का ज्ञान तो सूचना मात्र है। वास्तविक ज्ञान तो स्वयं के जानने को कहा गया है। जो स्वयं को जानने की दिशा में अग्रसर हो गया वही सच्चा ज्ञानी और वही सच्चा शिक्षित भी।

शिक्षा वास्तव में बाह्य परिर्वतन नहीं अपितु आंतरिक परिवर्तन है। शिक्षा मनुष्य का रूपांतरण है। मनुष्य का रूपांतरण कैसे संभव है इसके लिए महात्मा ज्योतिबा फुले के जीवन की एक वास्तविक घटना देखिए। महात्मा ज्योतिबा फुले एक महान समाज-सुधारक और निर्भीक व्यक्ति थे। उन्होंने न केवल अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाया-लिखाया अपितु स्त्रियों के लिए पाठशाला भी खोली। समाज के कुछ लोगों को यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने महात्मा ज्योतिबा फुले की हत्या करने के लिए कुछ लोगों को तैयार कर लिया। दो व्यक्ति महात्मा ज्योतिबा फुले की हत्या के उद्देश्य से उनके घर पहुँचे। महात्मा ज्योतिबा फुले के ये पूछने पर कि उनकी उससे कोई दुश्मनी नहीं है फिर भी वे क्यों उनकी जान लेना चाहते हैं तो हत्यारों ने बताया कि वो ये सब पैसे के लिए कर रहे हैं।

तब महात्मा फुले ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘सावित्री मेरे मरने के बाद भी शिक्षा और समाज सुधार का काम जारी रखना।’’ उसके बाद महात्मा ज्योतिबा फुले ने हत्यारों से कहा कि वे मरने के लिए तैयार हैं। फिर उन्होंने हत्यारों से पूछा, ‘‘आपके बच्चे पाठशाला तो जाते होंगे? यदि नहीं जाते तो कल ही पाठशाला में उनका नाम लिखवा देना ताकि बड़े होने पर वे कोई सही काम- धंधा कर सकें और पैसे के लिए किसी की हत्या करने की नौबत न आए। ज्योतिबा की बातों से उनका मन ही बदल गया। हत्या तो दूर वे उनके शिष्य बन गए। एक तो बाद में पढ़-लिख कर वेद-शास्त्रों का प्रकांड पंडित बन गया। महान व्यक्तियों के संपर्क में आकर, उनके श्रेष्ठ आचरण से प्रभावित होकर सही मार्ग पर अग्रसर होना ही वास्तविक शिक्षा है और इसके लिए किसी विद्यालय, विश्वविद्यालय या अन्य किसी बड़े शिक्षा संस्थान में जाने की भी ज़रूरत नहीं।

इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम शिक्षा संस्थानों की उपेक्षा करे अथवा पढ़ना- लिखना छोड़ दें। बेशक व्यावसायिक शिक्षा की उपेक्षा नहीं की जा सकती लेकिन येन- केन-प्रकारेण जो मात्र उदरपूर्ति अथवा केवल भौतिक समृद्धि के लिए तैयार करे वह वास्तविक शिक्षा नहीं। मनुष्य के बाह्य विकास एवं वास्तविक शिक्षा प्राप्ति के लिए साक्षरता तथा औपचारिक शिक्षा दोनों अनिवार्य है। अनौपचारिक शिक्षा तो हम बिना किसी प्रयास के भी प्राप्त करते रहते हैं लेकिन हमारी अनौपचारिक शिक्षा अवश्य ऐसी हो जो हमारे रूपांतरण में सहायक हो। इसके लिए भी हमें अपने लिए सही परिवेश, अच्छे मित्रों व सहयोगियों, अच्छी पुस्तकों तथा अच्छी आदतों के चुनाव की योग्यता विकसित करनी होगी। औपचारिक व अनौपचारिक शिक्षा में पूर्ण संतुलन उत्पन्न करके हम सही अर्थों में शिक्षित होने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं, अपना सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।


- सीताराम गुप्ता


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