साहित्य चक्र

26 June 2024

जरा सी लापरवाही, पड़ जाती है बहुत ही भारी


प्रबुद्ध पाठकों के ध्याननार्थ बता देना चाहता हूँ कि स्व० भागीरथजी कानोड़िया की लिखी एक लोककथा जो कभी पहले पढ़ी थी, उसी को यहां जैसा याद आया,प्रस्तुत कर रहा हूँ हालाँकि  उन्होंने जो भी नामकरण उस लोककथा में लिखा होगा वह तो याद नहीं है लेकिन उस लोककथा का मूल भाव बिल्कुल याद है। बहुत पहले एक देश के नरेश के पास एक हंस था। नरेश का उससे बहुत लगाव था इसलिये वह उसका बहुत ही ध्यान रखता था और अपने सामने उसे नित्य प्रति मोती चुगवाता था। वह हंस को सांयकाल या तो स्वयं महल के ऊपर मुंडेर पर ले जाकर अन्यथा अपने विश्वस्त के साथ भेज उसे उड़ने के लिये छोड़ता था। हंस आस पास का एकाध चक्कर लगा वापस मुंडेर पर लौट आता था।




एक दिन जब हंस उड़ कर दीवानजी के छत पर जा कर बैठा और इधर उधर देख रहा था उसी समय उसको दीवानजी की पुत्रवधू ने पकड़ लिया क्योंकि दीवानजी की पुत्रवधू गर्भवती थी और उसने सुन रखा था कि यदि गर्भावस्था में हंस का मांस खाया जाय तो होने वाली सन्तान सब तरह से सर्वगुण सम्पन्न व भाग्यशाली होती है। उसके बाद उसने पूरी सावधानी बरतते हुये उसे स्वयं ही रसोईघर में ले जाकर पका कर भक्षण कर लिया जबकि वह यह अच्छी तरह से जानती थी कि यदि नरेश को पता चल जायेगा तो परिणाम विनाशकारी होगा। इसलिये उसने पूरे प्रकरण के समय  ही नहीं बल्कि बाद में भी उसने इस बात का पता किसी को भी लगने ही नहीं दिया ।

उधर जब वह हंस काफी देर के बाद भी लौटा नहीं तब नरेश ने उसके खोज में अपने आदमियों को खोज लाने का आदेश दिया। आखिर में जब उसको खोजकर लाने में विफलता सामने आयी तब नरेश बहुत विचलित हो गया। उसके बाद नरेश ने न केवल अपने गुप्तचरों को इस काम के लिये आदेश दिया बल्कि आनन फानन में घोषणा कर दी कि जो भी हंस की सूचना देगा उसे पुरस्कृत किया जायेगा ।

काफी दिन बीत जाने पर भी जब सफलता नहीं मिली तब नरेश बहुत ही उदास रहने लगा। इसी बीच एकान्त में गुप्तचरों ने नरेश के सामने वेश्याओं के बीच काम करने वाली एक कुटिल दलाली करनेवाली औरत को पेश किया और उसकी बात सुन लेने का नरेश से आग्रह किया। उस औरत ने  नरेश को आश्वस्त करते हुये कुछ रकम की याचना की तब नरेश ने रकम दिलाते समय इस कार्य के लिये समय-सीमा भी निश्चित कर दी।

उस औरत को पता था कि गर्भावस्था में हंस का मांस खाया जाता है इसलिये उसने सबसे पहले नगर में रहने वाले सम्पन्न घरों में  इस पर अनुसंधान किया तब पता चला कि दीवानजी की पुत्रवधू गर्भवती है और वह घर महल के नजदीक भी है। उसके बाद वह पूत्रवधू के पीहर वाली जगह पहूंच पूरे परिवार के बारे में काफी जानकारी हासिल की ।  जानकारी हासिल करने के दौरान यह बात पता चली कि उसकी अर्थात पुत्रवधू की  भुआ बहुत पहले ही किसी साधू के साथ घर से निकल गयी थी और उसको काफी प्रयास के बावजूद खोजा नहीं जा सका था। इतना पता होते ही वह तुरन्त एक योजना सोच लौट आयी और सफेद साड़ी में दीवानजी की पुत्रवधू से मिलती है और उसकी पीहर का कुशल मंगल बता, अपने को उसकी भुआ बता, कहा कि वह जब अचानक लौटी तब केवल एक बार उससे मिल लेने का सोच यहाँ आयी है।

तब दीवानजी की पुत्रवधू ने औपचारिकतावश उससे कुछ दिन तक उसके साथ रह लेने का निवेदन करती है जिसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेती है। वहाँ रहने के दौरान वह उस पूत्रवधू की काफी सेवा सुश्रुषा कर उसका विश्वास जीत लेती है।और इसी विश्वास का लाभ लेते हुए, वह उसका टोह लेने के उद्देश्य से कहती है कि इस गर्भावस्था के समय यदि उसे हंस का मांस मिल जाय तो जो संतान होगी वह सब तरह से तेजस्वी होगी। फिर थोड़ी देर बाद वह कुटिल भुआ बनी औरत स्वयं ही इसकी कैसे व्यवस्था करूं.. इस तरह  बड़बड़ाती है ताकि पूत्रवधू भी सुन सके । फिर उससे कहती है कि मैं भाई से जाकर इस पर सलाह कर लेती हूँ ,  तभी अनचाहे ही पूत्रवधू ने अपने  हंस का मांस खाने का सारा तथ्य सहज भाव से बता दिया। 

उसके बाद उस तथाकथित भुआ ने उसे भयभीत करने के उद्देश्य से कहा इस हालात में तो तुम्हारे सिर पर हंस हत्या का पाप है। इसका असर आने वाली सन्तान पर न पड़े इसलिये प्रायश्चित कर लेना उचित रहेगा। इसके बाद पूत्रवधू से थोड़ा समय बाद स्वयं ही कहती है कि पोखर किनारे वाला  मन्दिर बिना पूजारी वाला है ।वहाँ मन्दिर में भगवान समक्ष  हंस हत्या की माफी माँग लेना क्योंकि भगवान भी जानते हैं कि प्रतिभाशाली सन्तान पाने वास्ते तुमने मजबूरी में ऐसा किया है। 

पूत्रवधू की स्वीकारोक्ति मिल जाने के बाद वह लुक-छिपकर नरेश को सारी बात बता देती है। लेकिन नरेश द्वारा प्रमाण माँगने पर वह उनसे अकेले ही मन्दिर के पीछे छुप कर स्वीकारोक्ति सुन लेने का आग्रह किया, जिसे नरेश ने स्वीकार कर लिया।

फिर निश्चित समय पर वह तथाकथित भुआ पूत्रवधू के साथ मन्दिर पहूँच  उसे पहले आँख बन्द कर ध्यान करने का कहती है। जैसे ही वह नेत्र  बन्द करती है वह बिना समय गँवाये  मन्दिर के पिछवाड़े  नरेश की उपस्थिति बावत आश्वस्त हो लौटती है। लेकिन जैसे ही पूत्रवधू आँख  खोलती है वह तथाकथित भुआ मन्दिर में प्रवेश कर रही होती है। उसके बाद उस तथाकथित भुआ ने उससे स्वीकारोक्ति के लिये कहा। तब पूत्रवधू शुरू करते हुये कहती है कि हंस का मांस खाने से कान्तिवान सन्तान मिलती है इसलिये... कह ही रही थी कि उस तथाकथित भुआ ने मन्दिर में रखे हुये नगाड़े की ओर देख कर कहा नगाड़ा नगाड़ा तुम इस माफी के गवाहीदार रहोगे।  

इस अप्रत्याशित प्रकरण ने  पूत्रवधू को  संशकित कर दिया । इसलिये वह तुरन्त एकदम चुप हो गयी। तब उस तथाकथित भुआ ने कहा बेटी फिर आगे बोलो तब उस पूत्रवधू ने कहा भुआ उसके बाद तो मेरी आंख खुल गयी और सपना सपना ही रह गया। इसके बाद तो उस कुटिल औरत की हालत  ऐसी हो गयी कि काटो तो खून नहीं।

शिक्षा: एक कहावत है जरा सी लापरवाही, पड़ जाती है बहुत ही भारी। इसलिये जब भी कोई अजनबी अपने को रिश्तेदार बताये तो तीन कोण से पुख्ता करने के पश्चात ही विश्वास करें अन्यथा जरा सी लापरवाही बहुत ही महंगी पड़ जाती है । 


                                                                     - गोवर्धन दास बिन्नानी "राजा बाबू"



हीट वेव जोखिम न्यूनीकरण के उपाय



           जलवायु परिवर्तन एवं तापमान वृद्धि के कारण विश्व में गर्मी बढ़ रही है। भारत में भी एक गम्भीर मौसमी घटनाओं के रूप में उभरी है। लू के कारण शरीर में पानी की कमी हो जाती है। लू को प्राकृतिक आपदाओं में साइलेंट किलर के रूप में भी जाना जाता है। लु से बुजुर्ग, बच्चे गर्भवती महिलायें बीमार, मजदूर, झोपड़-पट्टी में रहने वाले और आश्रयविहीन और अधिक प्रभावित होते हैं। असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाले व्यक्तियों को जोखिम उठाना पढ़ता है। गर्मी के बढ़ते मौसम में हीट वेव की स्थिति, शरीर के कार्य प्रणाली पर प्रभाव डालती है। अगर प्रभावित व्यक्ति को तत्काल उचित उपचार न मिले तो व्यक्ति की स्थिति गम्भीर हो जाती है। गर्मी सहन करने की एक सीमा होती है। तापमान में कोई भी अत्यधिक परिवर्तन उत्पादकता को भी प्रभावित करता है। ऐसे में हीट वेव से बचाव एवं न्यूनीकरण के संबंध में तैयारियां एवं जानकारी आवश्यक है।




             इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा कानपुर में एक भव्य कार्यशाला का आयोजन कर स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को जागरूक किया गया था। इसमें कानपुर मंडल के सैकड़ों महिलाऐं भाग ली थी। इटावा जनपद की ओर से मुझे भी प्रतिभाग करने का अवसर मिला था। उस कार्यषाला की प्रासंगिकता आज महसूस हो रही है। उसमें बताया गया था कि तेज बुखार, लगातार उल्टी एवं दस्त लू का लक्षण होता है। ऐसा होने पर तौलिया/गमछा भिगोकर सिर पर रखें और चेहरा को पानी में कपड़ा भिगोकर पोछे। आम का पना, सत्तू का घोल एवं नारियल का पानी पीये। 

ओ.आर.एस का घोल एवं ग्लूकोज भी नियमित रूप से पीयें। हीट वेव के प्रभावों को कम करने के लिये व्यक्ति को प्यास न लगने पर भी पानी पीते रहना चाहिए, ठंडक प्रदान करने वाले फलों व पेय पदार्थों का सेवन करना चाहिये, तेज धूप होने पर बाहर न निकलें, अगर बाहर निकलना आवश्यक हो तो छाता, गमछा, पानी की बोतल साथ लेकर चलना चाहिए और उनका प्रयोग करना चाहिये। हीट वेव के दौरान बुजुर्गों, बच्चों और गर्भवती महिलाओं का विशेष ध्यान रखना चाहिये। यदि बच्चों के पेशाब का रंग गहरा है तो इसका मतलब है कि वह पानी की कमी का शिकार हैं। उन्हें पर्याप्त मात्रा में पानी पिलाएँ। हमेशा पानी की बोतल अपने पास रखने के लिए कहें। पास में पानी उपलब्ध रहने पर लोग अनचाहे भी पानी पीते रहते है। किसी भी स्थिति में बच्चों या जानवर को बिना देखरेख के धूप में खड़ी वाहन में छोड़ कर न जाएं, वाहन जल्दी गर्म होकर खतरनाक तापमान पैदा कर सकते हैं।

           लू से बचने के लिए पर्याप्त पानी पिएं, भले ही प्यास न लगे। खुद को हाइड्रेटेड रखने के लिए ओआरएस, लस्सी, नींबू का पानी, छाछ आदि जैसे घरेलू पेय का इस्तेमाल करें। हल्के वजन, हल्के रंग के ढीले सूती कपड़े पहनें। गमछा, टोपी, छतरी आदि के द्वारा अपने सिर को ढकें। हाथों को साबुन और साफ पानी से बार-बार धोएँ। कार्य स्थल के पास ठंडा पेयजल उपलब्ध कराएं। श्रमिकों को धूप से बचने को कहें। कठोर परिश्रम क्षेत्र भ्रमण करने वालों के लिए दिन के ठंडे समय में काम निर्धारित किया जाय। दोपहर 12.00 बजे से 3.00 बजे के बीच बाहर सीधा धूप में जाने से बचें। दोपहर में बाहर जाने पर कठोर परिश्रम वाली गतिविधियों से बचें। धूप में नंगे पाँव न रहें। दिन में जब तापमान अधिक होता है, उस दौरान खाना पकाने से बचें। खाना पकाने के लिए हवादार, खुले दरवाजे और खिड़कियों वाले स्थान चुनें।

 शराब, चाय, कॉफी और कार्बोनेटेड पेय से बचे, जो शरीर को निर्जलित करता है। उच्च प्रोटीन वाले भोजन से बचें और बासी भोजन न करें। जितना हो सके घर के अंदर रहे। अपने घर को ठंडा रखें। पर्दे, शटर या शेड का उपयोग करें और खिड़कियाँ खुली रखें। निचली मंजिलों पर रहने का प्रयास करें। पंखे का प्रयोग करें, कपड़ों को नम करें और ठंडे पानी में स्नान करें। यदि आप बेहोशी या कमजोरी महसूस करते हैं, तो तुरंत डॉक्टर को दिखाएं।

           जहां तक संभव हो, तेज गर्मी के दौरान मवेशी को घर के भीतर रखें। जानवरों को किसी बंद आश्रय में न रखें। ध्यान रखें कि आपके जानवर पूरी तरह साफ हो, उन्हें ताजा पीने का पानी दे, पानी को धूप में न रखें। दिन के समय उनके पानी में बर्फ के टुकड़े डालें। पीने के पानी के दो बर्तन रखें ताकि एक में पानी खत्म होने पर दूसरे से वे पानी पी सकें। अपने पालतू जानवर का खाना धूप में न रखें। किसी छायादार स्थान में रखें, जहां वे आराम कर सकें। ध्यान रखें कि जहां उन्हें रखा गया हो वहां दिनभर छाया रहें। गर्मी से बेचैनी महसूस कर रहे हों तो उन्हें ठंडक देने का प्रयास करें।

                हीट वेव से बचाव के लिए सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर आवश्यक प्रबंध सुनिश्चित हो। ग्रामीण क्षेत्रों में जहां छाया है जहां पर लोगों का ठहराव होता हो, का चिन्हांकन कर जगह-जगह पर पीने के पानी के लिए प्याऊ की व्यवस्था की जाये। पानी के खराब हैंडपंप की मरम्मत कर ली जाये। समूह की बैठक कर लोगों को हीट वेव के बारे में बताया जाये। साथ ही साथ उसके बचाव के संबंध में जानकारी दी जाये। सभी विद्यालयों में पेयजल एवं पंखों की व्यवस्था सुनिश्चित हो। बच्चों को हीट वेव से बचने की ज्यादा से ज्यादा जानकारी दी जाये। अग्निशमन हर समय एक्शन मोड में रहें, जहां भी आगजनी की समस्या सुनने को मिले तत्काल कार्यवाही करें। जर्जर, टूटे हुए बिजली के खंभों को सही कर लिया जाये। सभी गौशालाओं में गायों के लिए पानी, छाया और हरा चारा व भूसे की पर्याप्त व्यवस्था, घायल व बीमार गौवशों के उपचार की समुचित व्यवस्था कर ली जाये। स्थानीय मौसम की विष्वसनीय जानकारी के लिए समाचार-पत्र पढ़ें, रेडियो सुनें, टीवी देखें। ग्रामीण क्षेत्रों में लू से बचने व बचाने के सम्बन्ध में व्यापक प्रचार-प्रसार का प्रबन्ध हों। इससे हम लू से बचाव और जोखिम को कम कर सकते है।


                                                                            - डॉ. नंदकिशोर साह


पढ़िए आठ कविताएँ एक साथ...





मेघा गरजो और
ज़ोर से बरसो न ।
मेघा गरजो और
ज़ोर से बरसो न।
भिगा दो तन मन।
उन्हें बुलाओ न।
इन बूंदों में भीगु,
मगन मतवाला मैं।
गीत मधुर सा कोई
तुम भी गाओ न 
सखी आंखों में आँसू
क्यों लाती है ।
आयेंगे सजना दिल 
से बुलाओ न।
आंगन मेरा प्यारा 
प्यारा राह तके है,
आओ सखी साथ 
मेरे इसे सजाओ न।
दस्तक सावन की 
आग लगाए कैसी।
सखियां आने वाली 
तुम भी आजाओ न।
मुस्कानों को बांटों 
तुम भी आजाओ न।
खुशी मनाओ, संवरो 
और मुस्काओ न ।
बचपन प्यारा न्यारा 
न्यारा याद करो तुम।
सद्भावना के दीप 
सखियों जलाओ न।
आसमानों को किसने
छुआबोल  सखी री।
दो पल ही सजन तुम
अपने दे आजाओ न।
दिल के तारों पर आहट 
कैसी सावन की ।
दिल की धड़कन क्या 
बोले बतलाओ न।
दिल पागल सा गुम 
सुम रहने लगा क्यों ।
आभी जाओ  इसको
कुछ समझाओ  न।
बरगद बूढ़ा, पगडण्डी
भी सुनी सुनी सी।
पेड़ों पर जो  नाम 
लिखे थे  पढ़ जाओ न।
मैं सीधा साधा सा
 एक  मासूम परिंदा,
ज़ुल्फ़ों में अपनी ऐसे 
तो उलझाओ न।
परदेशी परदेशी गीत 
सुहाना कहां लगे है।
दर्द बढ़ा है हद से लौट 
के वापस आओं न।
तुम भूले हो मुझको
मैं भूला दूँ  कैसे तुमको।
हिकमत है कोई तो 
मुश्ताक़  हमें बताओ न।

                                            - डॉ .मुश्ताक़ अहमद शाह


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 रोशनी

अपना सूरज खुद बन जाओ।
अपने मन-मंदिर में रोशनी,
फैलाते चलो दिव्य रोशनी,
जगमग करते चलो।

अपने कर्म श्रेष्ठ करते चलो।
मन सुंदर स्वच्छ बनाओ।
फिर स्वत: ही मन उजाला,
ही उजाला फैला जाएगा।

सेवा भाव रख कर श्रेष्ठ,
कर्म करते चलो जिससे,
दूसरों के जीवन को सुमन,
सा महका कर खुशबू फैला दें।


                                          - संगीता सूर्यप्रकाश मुरसेनिया 


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सब पैसों का खेल

मन में तेरे मैल भरा, कर ले इसको साफ
कुर्सी पर भी बैठ कर, नहीं होगा इंसाफ।

कैसा समय अब आ गया कैसा हुआ व्यवहार
भूल जाता मां बहन को सुंदर दिखी जो नार।

नर और पशु समान है रिश्तों को जाए जो भूल
संस्कार भी भूल गए अब रहे न कोई उसूल।

दिन रात जो करते थे मन से डट कर काम
फ्री की आदत पड़ गई अब करते हैं आराम।

संस्कार सब भूल गए भूले इज़्ज़त मान
भीड़ बहुत हो गई शहर में गांव पड़े वीरान।

बड़े बुजुर्गों माता पिता का रहा न इज़्ज़त मान
ऐसी शिक्षा और संस्कार नहीं किसी के काम।

सत्ता के पीछे फिरें करते सब गुणगान
सत्ता के जाने के बाद बनते सब अनजान।

दिल में बेईमानी भरी कपट भरा है मन
काला मन है छुपा हुआ बाहर उजला तन।

कपड़े उजले पहन लिए मन से गई न मैल
रिश्ते नाते सब भूल गया पैसे का है खेल

                                                                - रवींद्र कुमार शर्मा

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दोस्ती


दोस्ती का एक
नया रिश्ता बनाएँगे।
महबूब से ज्यादा
आपको चाहेगे।
जिस्मों के बाजार में
आपकी रूह से
रिश्ता बनाएँगे।
रूठ गया
अगर वक्त तो
उसको भी
आपके लिए मनाएगे।
छोड़ जाएगा जब
आपके अपने
तो भी हम
दिल से रिश्ता निभाएगे।

                                                       - डॉ.राजीव डोगरा


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बहुत किया मनचाहा तूने,
अब है तेरी बारी।
जीवो को मारा है तूने,
तुझे पड़ेगा भारी।
तुझे झेलनी होगी मौसम,
की ये मारा मारी।
पेड़ों को काटा है तूने,
तपी धरा है सारी।।

गर्मी का तांडव झेलेगा,
ये कर्मों की भरनी।
क्यों हाहाकार मचाया है,
ये है तेरी करनी।
अभी तो शुरूआत हुई है,
तुझे बहुत है सहना।
मान भूल को अपनी मानुष,
नहीं पड़े फिर कहना।

                                                 - सीमा रंगा इन्द्रा

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सच्चा प्यार

सच्चा प्यार क्या होता है, 
ये कोई तुमसे पूछे, 
निस्वार्थ भाव से प्यार करते हो, 
कोई तमन्ना नहीं है तुम्हारी, 
बहुत प्यार करते हो तुम, 
दिल की गहराई में उतर कर देखो, 
प्यार बहुत अनमोल होता है, 
तुम बहुत अच्छे लगने लगे हो, 
तुम्हारी हर हरकत मन को गुदगुदाती है,
तुम्हारे साथ बिताया हर पल बहुत याद आता है, 
प्यार का अह्सास बहुत खूबसूरत होता है, 
मेरी चाहत तेरे लिए है, 
मेरी सासें तुम्हारे लिए है, 
मेरी हर धड़कन पर तेरा नाम लिखा है, 
प्यार भगवान की इबादत है, 
प्यार निस्वार्थ होता है, 
सच्चा प्यार बड़े नसीब से मिलता है।

                                                            - गरिमा लखनवी


*****


कितने में बिका तू
जरा अपना दाम बताना,
अब तेरा वजूद मिटा
फिर कैसा शर्माना,

बस मुल्यों का फर्क रहता
कोई चाय की कुल्हड़ में
कोई मयखाने में
कोई चंद नोटों में
कोई बड़े पैमाने पर,

हाँ हर कोई बिकता हैं
कहीं मीठे शब्दों के मोल, 
कहीं बातें बड़ी झोल
कहीं दुनियां ही गोल, 

हर कोई बिकने-बेचने वाला
फिर तू ईमान की दुहाई
देते फिर रहा हैं,
ईमानदारी की भीड़ में
बहरूपिया बनकर सब
अपनी नजरों से गिर रहा हैंl 

                                                               - अभिषेक राज शर्मा 


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नाना जी सूरज

चंदा मामा हम बच्चों के
सूरज नाना जी कहलाते
रात सुहानी मामा करते
दिन में नाना हमें सताते ।
आयेगी छुट्टी जब अपनी 
खेलेंगे हम बाहर जाकर
जब सब आते बाहर बच्चे
नाना डराते आंख दिखाकर।
नाना सदा नवासों पर
प्यार अकूत बरसाते आये
ये कैसे नाना जी 'सूरज'
नवासों पर रोव जमाये ।
अब है छुट्टी हम खेलेंगे
नाना तुम्हें समझना होगा
हम बच्चों की प्रार्थना तुमसे
मंद मंद अब जलना होगा।
गुस्सा न करो तपो ना इतना
नानाजी तुम्हें पाप लगेगा
हम सब बच्चे कहते तुमसे
सुन लोगे तो अच्छा लगेगा।
    
                                             - व्यग्र पाण्डे

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09 June 2024

बहुत कठिन है सत्यवादी हरिश्चन्द्र बनना



भारत के लोग दुनियां में 
नहीं है किसी से कम
उनका मुकाबला नहीं आसान
बहुत है उनमें दम

जुगाड़ करने में नहीं इनका कोई सानी
जुगाड़ देख कर अमेरिका को भी याद आती है नानी
भ्रष्टाचार से निपटने को ईडी सीबीआई हैं बनाये
पर इनपर चलती है सत्ता पक्ष की मनमानी

छोटी मोटी घूस तो सभी हैं खाते
मोटा माल तो राजनीतिक दल हैं उड़ा जाते
बड़े बड़े लोग जब कोई बड़ा काम हैं करवाते 
तो बांड ख़रीदकर सत्तापक्ष को खुश हैं कर आते 

एक नया तरीका निकाला घूस खाने का
नकद न देकर बांड में पैसा लगाने का
कोई कितना भी ज़लील कर ले बेशक
सबके सामने नकली मुस्कुराहट दिखाने का

भ्रष्टाचार का पेड़ हो गया है बहुत पुराना
अपने आप को दूध का धुला है बताना
ईमानदारी की कमाई तो बांड में नहीं जाएगी
बांड में जो लगाया उससे हज़ार गुना है कमाना

यदि वास्तव में चाहते हो भ्रष्टाचार मिटाना
ईमानदारी से लड़ो चुनाव ईमानदारी का खाओ खाना
हर हाथको मिल जाये काम और दो वक्त की रोटी
छोड़ दो वोटों की खातिर फ्री का बांटना खाना खिलाना

यदि लें संकल्प सभी कि भ्रष्टाचार है मिटाना
तो अपने अंदर के राम को पड़ेगा जगाना
बहुत कठिन है सत्यवादी हरिश्चन्द्र बनना
जो चल रहा है उसी से पड़ेगा काम चलाना


                                             - रवींद्र कुमार शर्मा


कविता- बेटी




ये तो भई अपनी-अपनी कमाई है,
लच्छमी रूप में घर मेरे बेटी आज आई है.
कुछ वर्षो का साथ है बस, फिर जाना इसे अपने घर.
ये तो अपनी नहीं पराई है.

पैरों में छुन-छुन के बोल, आँगन में हसी-क्रीड़ा का शोर,
और फीतो में दो चोटियाँ बांधकर,
स्कूल में हमेशा अव्वल नम्बर पर आई है.
पर बेटी को ज्यादा क्या पढ़ाना, यही समाज ने समझाई है.
घर की चुल्हा-चौक देखना, माँ के कामों में हाथ बटाना,
इसी में बेटी की भलाई है.

लड़कपन में कद लंबा होना, रूप रंग में सौंदर्य आना,
बाबा को इसकी बड़ी चिंता सताई है.
बढ़ती बेटी को नहीं रखते ज्यादा दिन घर में,
यही समाज ने सदा सिखाई है.
कहते हैं अब रिश्ते देखना शुरू करदे,
बेटी की ब्याह करके गंगा नहाले,
कंधे में इतना बोझ क्यू बढ़ाई हैं.
लेकिन बेटियाँ कोई बोझ नहीं हैं,
यह उसने कर के दिखाई है.

आज है बेटियाँ डॉक्टर, इन्जीनियर, टीचर, वकील अनगिनत,
उसने अंतरिक्ष में भी छलांग लगाई है.
फिर भी आज भी कुछ स्थानों में,
बिन जाने, बिन परखे वर को, कर दी बेटी की बिदाई है.
जिसके कारण होती उसपर बहुत जुल्म और बुराई हैं.

घर और नौकरी दोनों सम्भालना के साथ,
पत्नी और बहू का फर्ज वह निभाई है.
शराबी पति और झगड़ालू ससुराल में,
पड़ गई उसपे तन्हाई है.

दहेज के लालच और वंश चलाने के लिए बेटे की चाह में,
अत्याचार उसपर अधिक चलाई है.
कहां जाएंगी छोड़ कर सबकुछ,
वह तो मायके और ससुराल दोनों में पराई है.
मायके में भाभी के बोल, लगे ज़हर के घूँट,

बेबस माँ ने कहा,
एक बच्चे के आजाने से संभलते रिश्ते की डोर,
दुख तो सुख की परछाई है.
पर अत्याचार करना और सहना दोनों पाप हैं,
इससे जाने कितने महिलाओं ने जानें गवाई हैं.

किसी से मदद की आश न उसको,
यह तो उसकी खुद की अपनी लड़ाई है.
लेकिन सबकुछ विनाश करने पर अाती,
जब नारी अपने आप में आई है.

तोड़के बंधन रूढ़िवादी समाज का.
एक बंधनमुक्त सशक्त समाज वह बनाई है.
खुद ही देख लो आज नारी..
हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन कर सामने आई है.


- कुमारी संगीता मेहरा



उदात्त जीवन-मूल्यों के विकास के अभाव में अपूर्ण है शिक्षा


क्या हम वास्तव में शिक्षित हैं? एक शिक्षित समाज में ये प्रश्न पूछना या उठाना कुछ अटपटा-सा लग सकता है लेकिन है ये एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न। क्या बी.ए., एम.ए., बी.एस.सी., एम.एस.सी., एम.फिल., पी.एच.डी., डी.लिट. बी.टेक., एम.टेक., एम.बी.बी.एस., एम.डी. अथवा अन्य डिप्लोमा-डिग्री प्राप्त कर लेना ही शिक्षा है? क्या इन कोर्सेज़ में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाना ही हमारी शैक्षिक योग्यता के स्तर को निर्धारित करने में सक्षम है? क्या एक अदद ख़ूबसूरत सी डिग्री प्राप्त हो जाने अथवा एक भारी-भरकम पैकेज मिल जाने से शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है? इन सब प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए शिक्षा के वास्तविक स्वरूप को समझने की आवश्यकता है।






शिक्षा प्राप्त करना अत्यंत महत्वपूर्ण है लेकिन ये जानना कि हमारी शिक्षा का उद्देश्य क्या हो शिक्षा प्राप्त करने से भी महत्त्वपूर्ण है। यदि हम शिक्षा प्राप्त करते हैं अथवा कोई डिग्री आदि लेते हैं लेकिन उससे हमें अच्छा रोज़गार नहीं मिल पाता अथवा हममें व्यवसाय आदि करने की क्षमता उत्पन्न नहीं हो पाती तो वो शिक्षा बेकार है। साथ ही यदि शिक्षा हमारी योग्यता अथवा प्रतिभा के विकास में सहायक नहीं हो पाती है तो भी ऐसी शिक्षा को उपयोगी नहीं माना जा सकता। मनुष्य के जीवन में संतुलन सबसे अधिक अनिवार्य है।

वह आर्थिक रूप से भी सक्षम हो और साथ ही उसका व्यक्तित्व भी प्रभावशाली हो। प्रभावशाली व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। इसमें व्यक्ति के स्वास्थ्य और बाह्य व्यक्तित्व के साथ-साथ दूसरी अच्छी आदतों का विकास भी सम्मिलित है। यदि व्यक्ति में उदात्त जीवन-मूल्यों का अभाव है तो उसे पूर्ण रूप से शिक्षित नहीं कहा जा सकता। कहा गया है सा विद्या या विमुक्तये। जो हमें मुक्त करे वही विद्या अथवा शिक्षा है। मुक्ति से तात्पर्य है अज्ञान अथवा अशिक्षा से मुक्ति। नकारात्मक भावों से मुक्ति। मनुष्य का एक परम लक्ष्य होता है नकारात्मक भावों से मुक्त होकर आत्म-विकास करना। दूसरों के विकास में बाधा न बनते हुए स्वयं का विकास ही शिक्षा है। शिक्षा के लिए ज्ञान शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। शिक्षा या विद्या की तरह ज्ञान भी विषयों अथवा पदार्थों का नहीं होता। बाह्य जगत का ज्ञान तो सूचना मात्र है। वास्तविक ज्ञान तो स्वयं के जानने को कहा गया है। जो स्वयं को जानने की दिशा में अग्रसर हो गया वही सच्चा ज्ञानी और वही सच्चा शिक्षित भी।

शिक्षा वास्तव में बाह्य परिर्वतन नहीं अपितु आंतरिक परिवर्तन है। शिक्षा मनुष्य का रूपांतरण है। मनुष्य का रूपांतरण कैसे संभव है इसके लिए महात्मा ज्योतिबा फुले के जीवन की एक वास्तविक घटना देखिए। महात्मा ज्योतिबा फुले एक महान समाज-सुधारक और निर्भीक व्यक्ति थे। उन्होंने न केवल अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाया-लिखाया अपितु स्त्रियों के लिए पाठशाला भी खोली। समाज के कुछ लोगों को यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने महात्मा ज्योतिबा फुले की हत्या करने के लिए कुछ लोगों को तैयार कर लिया। दो व्यक्ति महात्मा ज्योतिबा फुले की हत्या के उद्देश्य से उनके घर पहुँचे। महात्मा ज्योतिबा फुले के ये पूछने पर कि उनकी उससे कोई दुश्मनी नहीं है फिर भी वे क्यों उनकी जान लेना चाहते हैं तो हत्यारों ने बताया कि वो ये सब पैसे के लिए कर रहे हैं।

तब महात्मा फुले ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘सावित्री मेरे मरने के बाद भी शिक्षा और समाज सुधार का काम जारी रखना।’’ उसके बाद महात्मा ज्योतिबा फुले ने हत्यारों से कहा कि वे मरने के लिए तैयार हैं। फिर उन्होंने हत्यारों से पूछा, ‘‘आपके बच्चे पाठशाला तो जाते होंगे? यदि नहीं जाते तो कल ही पाठशाला में उनका नाम लिखवा देना ताकि बड़े होने पर वे कोई सही काम- धंधा कर सकें और पैसे के लिए किसी की हत्या करने की नौबत न आए। ज्योतिबा की बातों से उनका मन ही बदल गया। हत्या तो दूर वे उनके शिष्य बन गए। एक तो बाद में पढ़-लिख कर वेद-शास्त्रों का प्रकांड पंडित बन गया। महान व्यक्तियों के संपर्क में आकर, उनके श्रेष्ठ आचरण से प्रभावित होकर सही मार्ग पर अग्रसर होना ही वास्तविक शिक्षा है और इसके लिए किसी विद्यालय, विश्वविद्यालय या अन्य किसी बड़े शिक्षा संस्थान में जाने की भी ज़रूरत नहीं।

इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम शिक्षा संस्थानों की उपेक्षा करे अथवा पढ़ना- लिखना छोड़ दें। बेशक व्यावसायिक शिक्षा की उपेक्षा नहीं की जा सकती लेकिन येन- केन-प्रकारेण जो मात्र उदरपूर्ति अथवा केवल भौतिक समृद्धि के लिए तैयार करे वह वास्तविक शिक्षा नहीं। मनुष्य के बाह्य विकास एवं वास्तविक शिक्षा प्राप्ति के लिए साक्षरता तथा औपचारिक शिक्षा दोनों अनिवार्य है। अनौपचारिक शिक्षा तो हम बिना किसी प्रयास के भी प्राप्त करते रहते हैं लेकिन हमारी अनौपचारिक शिक्षा अवश्य ऐसी हो जो हमारे रूपांतरण में सहायक हो। इसके लिए भी हमें अपने लिए सही परिवेश, अच्छे मित्रों व सहयोगियों, अच्छी पुस्तकों तथा अच्छी आदतों के चुनाव की योग्यता विकसित करनी होगी। औपचारिक व अनौपचारिक शिक्षा में पूर्ण संतुलन उत्पन्न करके हम सही अर्थों में शिक्षित होने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं, अपना सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।


- सीताराम गुप्ता


कविता- प्रकृति संरक्षण





प्रकृति का दोहन करते हो,
और पर्यावरण दिवस मनाते हो,
हम सबको मिलकर,
प्रकृति संरक्षण करना है।

पेड़-पौधे नित नव लगाना हैं,
पेड़ काटने से रोकना हैं,
वायु प्रदूषण रोकना हैं,
व्यर्थ जल बहने से रोकना हैं,
जल संरक्षण का संकल्प लेना हैं।

अधिक से अधिक पेड़ लगाना हैं,
जन्मदिन पर एक पेड़ अवशय लगाना हैं,
यही नारा चहुंओर फैला कर,
जन-जन को जागृत करना है,
वैवाहिक वर्षगांठ पर,
एक पौधा उपहार में भेट देना है,

वायु प्रदूषण रोकना हैं,
अपने मित्र के जन्मदिन पर,
एक पौधा अवश्य भेंट करना है,
जो भी फल खाएं,
उसके बीज संभाल कर रखना हैं।

जब कभी अपने शहर से बाहर जाएं, 
तो रास्ते में किनारे पर,
फेंकते जाना है,
अपनी कॉलोनी और पूरे मोहल्ले में संगठित हो,
अधिक से अधिक को पौधे लगाना हैं।

सारे भारतवासियों को अधिक पौधे,
लगाने की शपथ ग्रहण करनी हैं,
पूरे भारतवर्ष को घने सघन वनयुक्त बनाना हैं,
भारत को प्रदूषण मुक्त बनाना हैं,
पर्यावरण की रक्षा कर,
पर्यावरण दिवस मनाना हैं।


                                                           - संगीता सूर्यप्रकाश मुरसेनिया


03 June 2024

गीता का दशम अध्याय- विभूतियोग



श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥

भावार्थ : श्री भगवान्‌ बोले- हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझे अतिशय प्रेम रखने वाले के लिए हित की इच्छा से कहूँगा॥1॥

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।

अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥

भावार्थ : मेरी उत्पत्ति को अर्थात्‌ लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ॥2॥

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌ ।

असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

भावार्थ : जो मुझको अजन्मा अर्थात्‌ वास्तव में जन्मरहित, अनादि (अनादि उसको कहते हैं जो आदि रहित हो एवं सबका कारण हो) और लोकों का महान्‌ ईश्वर तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान्‌ पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है॥3॥

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।

सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥

भावार्थ : निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इंद्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा अहिंसा, समता, संतोष तप (स्वधर्म के आचरण से इंद्रियादि को तपाकर शुद्ध करने का नाम तप है), दान, कीर्ति और अपकीर्ति- ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं॥4-5॥

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥

भावार्थ : सात महर्षिजन, चार उनसे भी पूर्व में होने वाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु- ये मुझमें भाव वाले सब-के-सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार में यह संपूर्ण प्रजा है॥6॥

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥

भावार्थ : जो पुरुष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है, वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥7॥

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥

भावार्थ : मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत्‌ की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत्‌ चेष्टा करता है, इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान्‌ भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं॥8॥

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्‌ ।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥

भावार्थ : निरंतर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरंतर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं॥9॥

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌ ।

ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥

भावार्थ : उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥10॥

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अंतःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ॥11॥



अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्‌ ।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्‌ ॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥

भावार्थ : अर्जुन बोले- आप परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, क्योंकि आपको सब ऋषिगण सनातन, दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। वैसे ही देवर्षि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास भी कहते हैं और आप भी मेरे प्रति कहते हैं॥12-13॥

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।

न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥

भावार्थ : हे केशव! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्‌! आपके लीलामय (गीता अध्याय 4 श्लोक 6 में इसका विस्तार देखना चाहिए) स्वरूप को न तो दानव जानते हैं और न देवता ही॥14॥

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।

भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥

भावार्थ : हे भूतों को उत्पन्न करने वाले! हे भूतों के ईश्वर! हे देवों के देव! हे जगत्‌ के स्वामी! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं॥15॥

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।

याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥

भावार्थ : इसलिए आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं॥16॥

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्‌ ।

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥

भावार्थ : हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूँ और हे भगवन्‌! आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं?॥17॥

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।

भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्‌ ॥

भावार्थ : हे जनार्दन! अपनी योगशक्ति को और विभूति को फिर भी विस्तारपूर्वक कहिए, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती अर्थात्‌ सुनने की उत्कंठा बनी ही रहती है॥18॥


श्रीभगवानुवाच

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।

प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥

भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियाँ हैं, उनको तेरे लिए प्रधानता से कहूँगा; क्योंकि मेरे विस्तार का अंत नहीं है॥19॥

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ॥20॥

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्‌ ।

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥

भावार्थ : मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायुदेवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ॥21॥

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।

इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥

भावार्थ : मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ, भूत प्राणियों की चेतना अर्थात्‌ जीवन-शक्ति हूँ॥22॥

रुद्राणां शङ्‍करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्‌ ।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्‌ ॥

भावार्थ : मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ। मैं आठ वसुओं में अग्नि हूँ और शिखरवाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूँ॥23॥

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्‌ ।

सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥

भावार्थ : पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति मुझको जान। हे पार्थ! मैं सेनापतियों में स्कंद और जलाशयों में समुद्र हूँ॥24॥

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्‌ ।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥

भावार्थ : मैं महर्षियों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर अर्थात्‌‌ ओंकार हूँ। सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूँ॥25॥

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥

भावार्थ : मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ॥26॥

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्धवम्‌ ।

एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्‌ ॥

भावार्थ : घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी और मनुष्यों में राजा मुझको जान॥27॥

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्‌ ।

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥

भावार्थ : मैं शस्त्रों में वज्र और गौओं में कामधेनु हूँ। शास्त्रोक्त रीति से सन्तान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ॥28॥

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्‌ ।

पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्‌ ॥

भावार्थ : मैं नागों में (नाग और सर्प ये दो प्रकार की सर्पों की ही जाति है।) शेषनाग और जलचरों का अधिपति वरुण देवता हूँ और पितरों में अर्यमा नामक पितर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ॥29॥

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्‌ ।

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्‌ ॥

भावार्थ : मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों का समय
हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ॥30॥

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्‌ ।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥

भावार्थ : मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में श्रीराम हूँ तथा मछलियों में मगर हूँ और नदियों में श्री भागीरथी गंगाजी हूँ॥31॥

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्‌ ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि और अंत तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या अर्थात्‌ ब्रह्मविद्या और परस्पर विवाद करने वालों का तत्व-निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद हूँ॥32॥

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।

अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥

भावार्थ : मैं अक्षरों में अकार हूँ और समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ। अक्षयकाल अर्थात्‌ काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, विराट्स्वरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ॥33॥

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्‌ ।

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥

भावार्थ : मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति हेतु हूँ तथा स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्‌, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ॥34॥

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्‌ ।

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥

भावार्थ : तथा गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम और छंदों में गायत्री छंद हूँ तथा महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत मैं हूँ॥35॥

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्‌ ॥

भावार्थ : मैं छल करने वालों में जूआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ। मैं जीतने वालों का विजय हूँ, निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव हूँ॥36॥

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥

भावार्थ : वृष्णिवंशियों में (यादवों के अंतर्गत एक वृष्णि वंश भी था) वासुदेव अर्थात्‌ मैं स्वयं तेरा सखा, पाण्डवों में धनञ्जय अर्थात्‌ तू, मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूँ॥37॥

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्‌ ।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्‌ ॥

भावार्थ : मैं दमन करने वालों का दंड अर्थात्‌ दमन करने की शक्ति हूँ, जीतने की इच्छावालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ॥38॥

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌ ॥

भावार्थ : और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ, क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो॥39॥

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥

भावार्थ : हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिए एकदेश से अर्थात्‌ संक्षेप से कहा है॥40॥

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्‌ ॥

भावार्थ : जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात्‌ ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उस को तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान॥41॥

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥

भावार्थ : अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रायोजन है। मैं इस संपूर्ण जगत्‌ को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ॥42॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥10।