अव्वल आख़िर जिंदगी का
मकसद ख़ाक़ है सुन लो,
हां सभी तो अपने ही थे
उनका गि़ला क्या करते,
ज़ख्म भी गहरे थे सभी
उनको अयाँ क्या करते,
तेरी मसरुफ़ियत तो
हमको पता है सारी,
तेरे आने की खुशी वादों
पे यक़ीं क्या करते,
जब सितारे भी हाथों से
निकले रफ़्ता रफ़्ता,
फ़िर चांद को पाने की
आरज़ू बता क्या करते,
वह मुसाफ़िर था हमसे
वफ़ा क्यों कर करता ,
हम भी थे मजबूर दिल से
अपने दग़ा क्या करते,
खुली हवा में उड़ने का वह
आदी था नहीं समझे,
हाथ फ़ैलाकर उसको बुलाते
तो भला क्या करते,
अव्वल आख़िर जिंदगी का
मक़सद ख़ाक़ है सुन लो,
महल और अटारी हम भी बना
लेते तो बता क्या करते ,
ख्वाबों के जज़ीरे का नक्शा
आंखों में फिरा करता है,
बेसिम्त चल रही थीं हवाएं
"मुश्ताक़"बता क्या करते ?
- डॉ. मुश्ताक अहमद
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दस्तूर
बहता है दर्द तो
लफ़्ज़ों में पिरो दो
झरता है इश्क़ तो
अल्फाज़ो में बटोर लो।
मिलता नहीं कोई
शख्स इश्क करने को
तो ख्वाबों में
किसी से इजहार कर दो।
मिलता नहीं कोई अपना
हाल-ऐ- दिल बतलाने को
तो परायो से थोड़ी
गुफ्तगू कर लो।
करता नहीं कोई वाह
बेहतरीन कार्य करने पर
तो खुद ही आह को
वाह बना लो।
- डॉ. राजीव डोगरा
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शिष्टाचार ही हमारा संस्कार
शिष्टाचार एवं आदर-सत्कार,
नम्रता से भरा हो व्यवहार,
प्रेम और सम्मान के साथ हो बातचीत,
सभ्यता से हो हम परिचित,
दूसरों की भावनाओं का हो सम्मान,
ना करै जाने अंजाने में भी अपमान,
धैर्य, संयम, और सहनशीलता,
हो सभी के लिए हमेशा समानता,
अपनी भाषा में सभ्यता दिखाए,
विनम्रता, विवेक, और समझदारी को ना भुलाए,
शिष्टाचार से भरा हर कदम है श्रेष्ठ,
क्यूं ना इसमें हो के दिखाए हम सर्वश्रेष्ठ।
- डॉ. माधवी सिंह इंसा
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बसंत पंचमी
हवा में उड़कर मीठी मीठी खुशबु आ गई,
कोयल की तान मन को भा गई,
चारो तरफ सरसों के पीले फूल लहलहा गए,
सूरज ने भी आखें खोली,
चारों ओर उजाला छाया,
फूलों की महक हर तरफ फैली,
पूरी फिज़ा बसंती हो गयी,
माँ सरस्वती की पूजा हो रही,
धरती माँ ने पीली चादर ओढ़ ली,
सूरज की गर्मी से,
धुंध चारो ओर की छट गई,
हे माँ जैसे सूरज के आने से धुंध छट जाती है,
वैसे ही सबके जीवन में उजाला हो जाए,
बसंत पंचमी का ये शुभ दिन,
सबके जीवन को महका गया।
- गरिमा
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हूँ ...मैं
अपने डर से बहुत -बार लड़ा हूँ.... मैं ।
जीने की हर कोशिश में बहुत -बार मरा हूं मैं।
सैकड़ों बार टूट -टूट के
फिर उन टुकड़ों को जोड़ कर जुड़ा हूँ.. मैं।
अपने डर से बहुत -बार लड़ा हूँ.... मैं ।
अपनों ने ही खींचे थे पाव।
सैकड़ो बार गिरकर लड़खड़ाते हुए फिर भी खड़ा हूँ ..मैं।
मिले तो थे हाथ साथ मगर।
जिंदगी की राह पर फिर भी अकेला चला हूँ.. मैं।
अपने डर से बहुत -बार लड़ा हूँ.... मैं ।
सवाल बन के क्यों...रह गई जिंदगी।
हर उस जवाब की तलाश में अब चला हूँ...मैं।
उम्मीदों से छुड़ाकर हाथ अपना।
आज आपने साथ पहली बार चला हूँ...मैं।
- प्रीति शर्मा 'असीम
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हंसना मुस्कुराना दोनों हैं अपने हाथ
अच्छे का इंतजार करते करते
जो मिला था वह भी गंवा दिया
तृष्णा रही बहुत कुछ पाने की
जिसने दिया उसी को भुला दिया
जीवन निकल गया मिला कुछ नहीं
जो चल रहा है उसी में मज़ा लीजिए
हर वक्त क्यों रहते हो तनाव में
अपने आप को मत यूं सजा दीजिए
हंसना मुस्कुराना दोनों हैं अपने हाथ
यह आप पर निर्भर है आपको क्या चाहिए
अवसर मत ढूंढिए कोई हंसने का
बिना बात के भी कभी कभी मुस्कुराइए
मन में मत कुछ रखिये
जो मन को भाय वह पीजिए खाइए
घर में बैठ कर क्यों करते हो वक्त बर्बाद
कुछ समय निकाल कर बाहर घूम आइए
दीन दुखियों के साथ कुछ वक्त बिताइए
दोस्तों के साथ दूर तक टहलने निकल जाइए
बुजुर्गों के साथ बैठिए गप्पें मारिये
मुस्कुराने की बजह उनको दीजिए खुद भी मुस्कुराइए
सार्थक हो जाएगा आपका जीवन जो
आपके कारण दूसरों के होठों पर हंसी आएगी
ऊपर वाला भी देखकर खुश होगा आपका काम
जीवन की बगिया में खुशी हमेशा मुस्कुराएगी
- रवींद्र कुमार शर्मा
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स्त्री क्या है?
वीरेंद्र बहादुर सिंह
स्त्री क्या है?
ब्रह्म है?, जीव है?, या जगत है?
स्त्री क्या है?
स्त्री कोई 'सार' है?
तलवार की 'धार' है?
या रात के बाद का 'सवेरा' है?
स्त्री क्या है?
स्त्री कोई 'छाया' है?
या मन को मोहने वाली कोई 'माया' है?
स्त्री कोई 'सुर' है?
स्त्री कोई 'उर' है?
या फिर यह कोई 'कोहिनूर' है?
स्त्री क्या है?
स्त्री कोई 'सवाल' है?
या फिर सवाल में छुपा 'जवाब' है?
स्त्री पुरुष की 'ढाल' है?
मां का 'दुलार' है?
या फिर पत्नी या प्रेमिका का 'गाल' है?
स्त्री क्या है?
यह कैसे जान सकता हूं?
पर इतना जरूर जानता हूं।
कि स्त्री के बिना तो...
अयोध्या के 'राम', द्वारिका के 'श्याम'
या नीलकंठ द्वारा भस्म किया गया 'काम' भी,
एकदम खाली होता...
क्योंकि... स्त्री 'फेफड़े' में आए तो 'हवा'
और 'दिल' से गुजरे तो 'दवा' बन जाती है।
स्त्री क्या है?
- वीरेंद्र बहादुर सिंह
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प्रकृति का हर कोना बोले, आकाश की गहराई में खोले,
नीला विस्तार लिए आकाश, जैसे कला का कोई परिहास।
हरी-भरी धरती की चादर, फूलों की वो मधुर फुहार,
वृक्षों की लहराती डालियाँ, प्रकृति की सजीव मालाएँ।
शाम ढले जब सूरज छिपे, आकाश रंग बदलता जाए,
लाल, पीला, नारंगी, नीला, जैसे कलाकार का पैगाम।
रात्रि में तारों की चमक, चाँद की चांदनी बिखेरे,
आकाश बन जाता है चित्रकारी, जिसमें चाँदनी है घेरे।
प्रकृति का यह अद्भुत खेल, जीवन का सुंदर मेल,
आकाश-धरती का ये संगम, सिखाए हमें जीवन का ये गीत।
हर पल यह संदेशा लाए, जीवन है खूबसूरत सजाए,
प्रकृति और आकाश में जो खोजे, पाए वह शांति अपरिमाए।
- दीपक कोहली
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हे वीणावादिनी सरस्वती
हे वीणावादिनी सरस्वती,
हे हंस वाहिनी सरस्वती।
विधा का वरदान दे दो मां,
हाथ में वीणा पुष्प कमल पर,
विराजमान तुम रहती हो।
मन के अंधकार को मिटा देना,
उजालों का हमको अधिकार देना मां।
बुध्दि की दाता तुम हो,
मेरे कंठ में आकर हम सब,
पर कृपा ऐसी कर दो मां ।
विधा की तुम हो देवी,
कण -कण में तुम है विराजी।
ऋषियों ने समझा है,
और मुनियों ने जानी।
वेदों की भाषा पुराणों की वाणी,
हमको अपनी शरण में ले लो मां।
तुम श्वेत वर्णी वीणा को धारण करती,
मन से कभी ना तुम दूर होना।
तुम जगत जननी कल्याण करणी,
तुम ने मुझे इतना कुछ लायक बनाया।
- रामदेवी करौठिया
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दुख का साथी
कोई शरीफ़ लगता है, कोई बेईमान लगता है,
जिसमें भी हो ख़ुद्दारी, वो ही इंसान लगता है,
पीड़ा में साथ बहुतेरे, फिर कैसा है घबराना?
जहाँ देखो मुसीबत है,पथ में आई दिक्कत है,
इंद्रधनुषी रंग बदलना,ये लोगों की फ़ितरत है,
भला जो सबका करे, बड़ा परेशान लगता है!
दुख में जो खड़ा मेरे, हमें भगवान लगता है।
कष्टों को मिलने दो, करेंगे उनका भी सामना,
किसी के दिल से निकली है, मेरे लिये कामना,
उन्हीं सँग सांझ सवेरे,जीवन आसान लगता है!
दुख में जो खड़ा मेरे, हमें भगवान लगता है।
कचोटती हैं ये चिंताएं, जब आती कुछ बाधाएँ,
रखकर रब पर आशाएँ, मुश्किलें दूर हो जाएँ,
समस्या के जब बने घेरे,सही निशान लगता है!
दुख में जो खड़ा मेरे, हमें भगवान लगता है।
है मानवता अभी ज़िंदा, भलाई करते रहो प्यारे,
होती रहे बेशक निंदा, कर्म लिखे जाते हैं सारे,
जो मानस गुणों को धरे, वही महान लगता है!
दुख में जो खड़ा मेरे, हमें भगवान लगता है।
- आनन्द कुमार
*****
प्रकृति की लालसा
हिमाच्छादित चोटियाँ नीले नभ से करती यूं बयां ,
मिलने को आतुर ,
लक - दक होती हम बारम्बार ,
कोशिश में रहती ये सब करके ,
चिर इच्छा यूं पूरी होगी इसबार
वृक्ष शाखाओं को फैलाकर ,
नभ को कहते यूं निहार ,
अब तो मिल जाओ तुम हुमसे ,
हम फिर से न जाएँ हार
खग भरकर ऊंची उड़ान ,
अबकी उड़ान सबसे ऊंची जान ,
आज तो मिलन होगा ही ,
जरूर साथ देगा आसमान
समंदर का जल ,
ताप से जलकर ,
धुआँ –धुआँ होकर ,ऊपर उड़ ,
प्रयास नभ से मिलन का कर ,
कहता,कब होगा मिलन ,
क्या फिर से मुझे आना पड़ेगा ,
बिन मिले ही इस धरा पर
मिट्टी धरा की ,
धूल का गुब्बार बन,
कण –कण को समेट ,खुद को सबल कर,
प्रयत्न करती, पहुंचे नभ तक,
होने को एक ,आसमां से मिलकर ,
पुकारती ,क्या फिर मेरे हौंसले को देंगे दबा जलद ,
संग अपने वृष्टि रूप से ,
ला देंगे फिर जमीं पर ,
ये चोटियाँ सहकर सब ,
कर ऊंचा कद ,
वृक्ष अपने फैलाव की हद तक ,
खग,पंखों का अति प्रयास कर ,
ताप अति ,जल समंदर का सहकर ,
कण-कण समेट मिट्टी सबल बन,
अपनी-अपनी वाणी में ,
कर रहे नभ से प्रार्थना रह-रह कर ,
मिलन की उनकी ,
उससे अधूरी लालसा होगी कब पूरी ,
कुछ तो बयां कर
कहता शांत, हृदयविशाल, अंतहीन आकाश ,
हर ना मानें कोई
मुझसे मिलने का करता रहे हर प्रयास ,
चुनौती रहेगी ,रहेगी जब तक ये चाह ,
होड़ रहेगी बढ़ने की आगे ,
तुम हारें ना मैं जीतूँ ,
प्रकृति का संतुलन यूं रहे बना ,
देखकर तुम सबको यूं प्रयासरत ,
संतुष्ट सा खुद को हूँ पाता ,
फिर मैं तुमसे हूँ ,तुम मुझसे हो ,
है गहरा हमारा नाता ,
ध्यान रहे मर न पाए तुम्हारी ये लालसा ,
यही तो दिखाएगी तुम्हें आगे बढ़ने की राह
- धरम चंद धीमान
*****
!! सरस्वती वंदना !!
माँ शारदे हमें वरदान दे,
हमको नवल उत्थान दे।
अज्ञानता से हमें मुक्त कर,
सुरों को हमारे राग दे,
संगीत से हमें अनुराग दे।
अपनी शरण में हमें लेकर,
बेटों सा हमको दुलार दे।
जीवन हमारा संवार दे,
भव से हमें तार दे।
अवगुणों को हमारे दूर कर,
गुणों का हमें भंडार दे।
विद्या का हमें अधिकार दे,
हमें श्रेष्ठ बुद्धि अपार दे।
नफरतों से हमें दूर रख,
प्यार हमें बेशुमार दे।
माँ शारदे हमें वरदान दे,
हमको नवल उत्थान दे।
अज्ञानता से हमें मुक्त कर,
ज्ञान का हमें प्रकाश दे।
- भुवनेश मालव
!! हुण लगी बरखा !!
तीन महीनेया रा हुई गयी रा था एडा लम्बा अरसा।
हुण जाई कने हुणे लगी बरखा।।
डोहरुआ री कणक हुई गयी री थी पियुली।
काले काले बादल देखी करीने खुश हुई गया जीयू।
हुण ता बरखा लगी सौगी लगेया पौणे हियुं।।
सभी लोके पैहनी लयीरे अपणे मोटे मोटे गर्म कपड़े ।
खाडा औणे लगेया पाणी कने भरने लगे जंगला रे छपड़े।।
नकाल पौणे ते हुण जाणा बची।
पाणी ने सौगी सौगी फसल भी हुणी अच्छी।।
हुण दबारा खाणे जो मिली कराएं भोगड़े कने मूंगफली।
चूल्ही ले बैठी करीने घयाना पाणे रा दौर दबारा पैया चली।।
- विनोद वर्मा
*****
!! शेष !!
'कल, आज और कल'
यही जीवन है;
इसके आगे 'मृत्यु और रहस्य' है।
यह जो सड़क जा रही है-
इसी पथ से होकर
तुम्हें ले जाया जाएगा;
जीवन के बाद,
मृत्यु की यथार्थता के साथ,
उसी 'रहस्य' की ओर
जहाँ जीवन का अंत होता है,
मृत्यु आती है
और 'रहस्य' ही शेष रहता है।
इसी 'रहस्य' से जीवन जन्म लेता है
और ईश्वर भी।
- अनिल कुमार केसरी
*****
हाल ए दर्द
सस्ती चीजों को जब भाव दिये ।
लगता है जैसे खुद को घाव दिये ।।
कभी जिनकी ताव पर काम आये,
आज वही बात बात पर ताव दिये।।
कौर कौर का ये कसैलापन खूब हैं,
जबकि आवभगत में खूब चाव दिये।।
तैरकर उल्टी धारा जिन्हे पार उतारे,
आज मजधार में वही डुबो नाव दिये।।
आज जो उनकी नींद उड़ी उड़ी सी है,
कभी अपनी नींद को नहीं ठाँव दिये।।
विकास समेट कर अपने आगोश रख,
यहाँ दोस्त भी दुश्मन सा बर्ताव दिये।।
- राधेश विकास
*****
क्या लिखू माँ तेरे बारे में..
जब भी इस भीड़ में खुद को अकेला पता हूं...
तुम्हें याद करके अपना अकेलापन दूर कर पता हूं...
दोस्त भी तुमसे अच्छा कहा है माँ...
वो तो काम आने पर याद करता है...
जो बिना बात पर भी मेरी राह तकती है...
वो उस मंदिर कि घंटिया भी अब उस तरह नहीं बजती...
जो तू मुझे गोद मे उठाकर बजवती थी...
अब वो भगवान भी बदल गया माँ...
जो तुम्हरे बोलने पर बोलता था...
तुम्हारे बुलाने पर आता था...
अब तो वो भी मेरे साथ ऐसा खेल खेलता है...
कि हर खेल मे भी तू ही याद आती है..
मेरी हार को मेरी जीत बनाने वाली
ओ... ओ... ओ... मेरी माँ..
तुम्हारी हर पल बहुत याद आती है...
- अमन वशिष्ठ
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