साहित्य चक्र

25 August 2022

कविताः शब्दों के बादल






*एक*

पागल हो जाना
इतना आसान नहीं है
हो गये तो उबरना
और भी मुश्किल है।

*दो*

सब कुछ उड़ जाता हवा में
पर हवा भी देखो कैसी विचित्र है
सभी को तितर बितर कर देती
खुद बैठी रहती चुपचाप।

*तीन*

उस दिन गया था वह
फिर लौटा नहीं,

मैंने लौट कर ऐसा
कौन-सा तीर मार दिया?
इस बार जो जाऊंगा
फिर लौटूंगा नहीं।

*चार*

डर किस बात का?
तेरा अब बचा क्या बेटा
जो समंदर की प्यास लिए
आकाश की ओर मुँह बाये बैठा है?

*पाँच*

था तो बहुत कुछ
पर सब कुछ बिखर गया
सब कुछ उजड़ गया,
बचा सका जो थोड़ा
उसे भी भोग नहीं पाया।


.                                                          अनुवाद: राधू मिश्र


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