साहित्य चक्र

30 April 2025

दुश्मन ने आज हमें फिर है ललकारा





दुश्मन ने आज हमें फिर पहलगांव से है ललकारा
घूमने गए निर्दोष लोगों को बहुत बेदर्दी से है मारा
अनजान थे सभी से किसी से न थी दुश्मनी उनकी
उन निर्दोष लोगों ने तो किसी का नहीं था कुछ बिगाड़ा

भाग दौड़ की ज़िंदगी से कुछ हसीन पल चुराकर
जन्नत की सैर करने जा रहे गए थे घर में यह बताकर
किसे मालूम था जन्नत बन जाएगी कब्रगाह उनकी
चले गए रोता बिलखता छोड़कर सबको गम में डुबोकर

सात जन्मों का साथ निभाएंगे चले थे यह वायदा करके
जा रहे थे कहीं और किस्मत ले गई कश्मीर छल करके
सात जन्मों का साथ सात दिन में ही छोड़ कर चल दिये
अब तो जीना पड़ेगा तेरे बगैर जीवन भर यूँ ही मर मर के

रहम की भीख मांगना भी किसी काम न आई
मजहब का नाम पूछ कर सीधी गोली चलाई
देख रहा ऊपर बैठ कर तुम्हारे सब अनैतिक काम
सुहागन की लाल लाल चूड़ियां तुम्हें नज़र क्यों नहीं आई

लगा दो लाशों के ढेर आज मांग रहा है हिंदुस्तान
मिटा दो इस धरा से ऐसे जालिमों के नामों निशान
क्यों पैदा किया था मैंने ऐसा जालिम बेगैरत इंसान
सोच रहा होगा आज कहीं बैठ कर भगवान

बेगुनाहों के खून से रंगे हैं जो हाथ उन हाथों को तोड़ दो
बह रही जो हवाएं दहशतगर्दी की उनका रुख मोड़ दो
पहलगांव की धरती को जिन्होंने कर दिया खून से लाल
उनकी रगों से एक एक बूंद खून की निचोड़ दो

अगर यही हाल रहा तो कश्मीर कोई नहीं जाएगा
रोजी रोटी छिन जाएगी अपने किये पर पछतायेगा
लगेगी हाय उन मासूमों की जिन्हें मौत के घाट उतार दिया
जन्नत जैसा यह गुलसितां फिर दोबारा खिल नहीं पायेगा


                                           - रवींद्र कुमार शर्मा


कविता- मिथ्या आवरण




ईमान को बेचकर कभी 
ईमानदार नहीं बना जाता।
दर्द देकर कभी किसी का 
हमदर्द नहीं बना जाता।

इंसान को तोड़कर कभी 
इंसानियत का दावेदार 
नही बना जाता।
बीच राहों में छोड़कर 
हमसफर को कभी
हमराही नहीं बना जाता।

कल-कल कर कभी 
पल-पल का जीवंत जीवन 
नहीं जिया जाता।
देकर औरों को दुख कभी
खुद के चेहरे पर
खुशियों का झूठा मुखौटा 
नहीं पहना जाता।


                              - डॉ.राजीव डोगरा


लघु कथा- घूंघट


मैं टैक्सी में बैठी अपने गंतव्य की ओर जा रही थी। दूर सड़क के किनारे एक महिला अपने एक हाथ में दूध की बरनी लटकाए हुए और दूसरे हाथ से बार - बार अपने घूंघट को खींच रही थी। 





शायद सड़क पार करने का इंतजार कर रही थी। देखने में वह महिला अधेड़ उम्र से थोड़ा ज्यादा ही लग रही थी। उसे देख मुझे ख्यालल आया कि घूंघट की ओट तो छोड़ो, शायद इस उम्र में कुदरती आंखों से भी कम दिखना आम बात होगी। 

उसी उधेड़बुन में टैक्सी उसे पीछे छोड़ आगे निकल गयी और मैं अपने काम में व्यस्त हो गई। अगले दिन अखबार में एक कोने में छपी खबर ने मुझे झकझोर दिया। 

ख़बर थी, "तेज रफ़्तार ट्रक ने अधेड़ महिला को कुचला, अज्ञात चालक के खिलाफ मामला दर्ज।" मुझे बार-बार सड़क किनारे घूंघट में खड़ी महिला का ध्यान आ रहा था।


                                                        - कंचन चौहान, बीकानेर




29 April 2025

कविता- रक्तिम तूलिका...




आज तूलिका है स्तब्ध  
कह रही हाय!राम धत्त। 

आज स्याह रंग भी 
रक्त है उगल रही,
पूछती है सभी से
क्या अब भी वही सही?

तुम अब भी नहीं उठे
तूलिका हो जाएगी मौन,
बिखेर देगी रंग लाल
फिर ये पूछेगी प्रथम
तू बता कि है कौन ?

लाल किसका है तू
और किसका है सिंदूर
है अगर महावर चूड़ी
फिर जा तू अब उनसे दूर।

जा रहे सुनी कलाई
कौन अब किसका भाई
छाती पिट बिलख रही 
वो है किसकी  माई?

अरे किसकी कोख तू पला
किस अभागन का तू लला।
या वो पियूष के बदले 
तुझको रही थी खून पिला?

उठो उठो हे मेरे लाल
लगाती चंदन तेरे भाल
आतंक और आतंकियों का
करो सर्वनाश निकालो भाल।

है तुझे मेरी कसम
अब चलेगी तभी कलम
जब लोगे प्रतिशोध तुम
और उनका सर कलम।

वरना ये तूलिका छेरेगी
सिर्फ लाल रंग...

 
                                          - सविता सिंह मीरा 

एक अविस्मरणीय यात्रा का सफर


अपनी उम्र के कई साल स्कूल, कॉलेज, नौकरी, गृहस्थी में बिताने के बाद मुझे अहसास हुआ है कि जीवन में अब भी कुछ अधूरा-सा हैं। मृत्यु सहज सी लगने लगी जैसे कुछ ही पलों में मृत्यु आ जायेगी, मैं बस यही सोच रही हूँ कि जीवन में आखिर खालीपन है कहाँ ? 





आखिर में समझ आया कि मैं कई सालों से जीवन की भाग-दौड़ और बहदवासी भरी ज़िन्दगी के चलते एक अकेलेपन भरे कमरे में बन्द थी, उस संसार रूपी कमरे में इतनी शक्ति है कि मैं चाहकर भी अपने अनुभवों और कहानियों से उसे तोड़ नहीं सकती थी। मैं जीवन भर चलती रहीं, फिर भी एक सुकून का कोना नहीं मिला।

23 अगस्त 2019 में मेरी मुलाकात होती है रमेश जी से जिन्होंने मुझे मिलवाया, एक नये सफर से और मेरा वो सफर शुरू हुआ "ॐ शिव शंकर तीर्थ यात्रा"  के साथ, जिस ने मेरे जीवन के जीने के वास्तविक मायने बदल दिये। इसके संचालक है श्याम चतुर्वेदी जी जब से मैंने इनके साथ यात्राएँ करनी शुरू कि ऐसा लगा मानो, मेरे जीवन में नये अध्याय का प्रारम्भ हुआ हो। मैंने हिमालय से कन्याकुमारी, द्वारिका से पुरी तक का सफर तय किया और सच कहूँ तो बहुत खुबसूरत रहा मेरा हर सफर। 





मैंने उड़ती बर्फ, ठण्डी हवा, बहता पानी, पहाड़, चलती गाड़ियों की खिड़की से बहार देखना, हवाओं को मेरे बालों के साथ खेलना सच में मेरे लिए वो दृश्य काल्पनिक सा लग रहा था। मगर यह सच था, इतनी उम्र बिताने के बाद अब ऐसा लग रहा है कि जीवन तो यात्रा ही है।

वो सारी यात्राएँ जो मैंने की श्रीलंका, भूटान, नेपाल, दार्जिलिंग, कश्मीर, केरल द्वारिका, कैलाश मानसरोवर, दुबई, तीन धाम ग्यारह ज्योतिर्लिंग, मनाली आदि वो मुझे मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत पलों में से एक हैं। बहुत ही आरामदायक सफर रहा मेरा इन बीते सालों में और  मैं यही सलाह दूंगी कि अगर शान्तिपूर्ण और सहज यात्राएं करनी है तो ॐ शिव शंकर तीर्थ यात्रा सेक्टर-9, मालवीय नगर, जयपुर के साथ कीजिए। 





जीवन को जीने का आपका नज़रिया बदल जाएगा। मैं किसी विशेष या किसी कंपनी के प्रचार के लिए नहीं बोल रही हूँ। मैंने वास्तविकता में अपने जीवन में बहुत यात्राएं की हैं, लेकिन ऐसी यात्राएँ जिसमें सभी यात्री पारिवारिक माहौल बनाएं, शुद्ध सात्विक वचन और भोजन रखें यात्रा करें, मैंने कभी नहीं देखा था। मगर वो मैंने यहाँ देखा और महसूस किया।


मैं अपनी यात्रा के कुछ अनुभवों को आपके साथ साझा करती हूँ-

भारत की विविधता को करीब से देखने की चाह ने मुझे एक लंबी यात्रा पर निकलने के लिए प्रेरित किया। यह कोई साधारण यात्रा नहीं थी। यह आत्म की खोज, संस्कृति-साक्षात्कार और सौंदर्य-प्रेम की एक जीवंत यात्रा थी। मैंने उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक भारत के प्रमुख शहरों, गाँवों, पहाड़ों, सागरों और रेगिस्तानों की यात्रा की।


उत्तराखंड में ऋषिकेश की गंगा आरती और हरिद्वार की धार्मिकता ने मेरी आत्मा को छू लिया। मनाली और शिमला की बर्फीली वादियाँ और हिमालय की ऊँचाई किसी स्वप्नलोक से कम नहीं थीं।

पश्चिम भारत- रंग, रेगिस्तान और शौर्य राजस्थान में जयपुर, उदयपुर और जैसलमेर के किलों और हवेलियों ने राजसी संस्कृति से परिचय कराया। जबकि गुजरात में कच्छ का रण सफेद नमक से ढका था। सूरज डूबने के बाद का दृश्य आज भी आँखों में बसा है। महाराष्ट्र में मुंबई की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी और गेटवे ऑफ़ इंडिया की शाम साथ ही अजंता-एलोरा की गुफाओं ने प्राचीन कला से अवगत कराया।





दक्षिण भारत- प्रकृति, मंदिर और आत्मिक शांति केरल में हाउसबोट पर बिताई गई रातें, मुन्नार की चाय बगान और कोवलम का समुंदर शांतिदायक थे। तमिलनाडु के मदुरै और रामेश्वरम के मंदिरों ने भक्ति से भर दिया।कर्नाटक में मैसूर पैलेस और हम्पी के खंडहरों की कहानी अनसुनी और अद्भुत थी। आंध्र प्रदेश में तिरुपति बालाजी के दर्शन कर मेरी इस यात्रा को एक आध्यात्मिक ऊँचाई मिली।

पूर्व भारत- संस्कृति, प्राकृतिक सुंदरता और जनमानस कोलकाता में साहित्य, दुर्गा पूजा और रसगुल्ले ने मन मोह लिया। ओडिशा में कोणार्क सूर्य मंदिर और पुरी का समंदर जीवन में एक शांत ठहराव लेकर आया। उत्तर-पूर्व भारत में असम के चाय बगान, मेघालय के जीवित जड़ों के पुल और सिक्किम की बर्फीली चोटियाँ मानो प्रकृति की गोद में समय थम गया हो।




 

श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में उतरते ही भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। यहां से रामायण यात्रा की शुरुआत होती है।

मुन्नेश्वरम मंदिर (चिलाव)- यहीं वह स्थान है जहाँ भगवान राम ने रावण वध के बाद ब्रह्महत्या दोष से मुक्ति के लिए भगवान शिव की पूजा की थी। इसके अलावा मांनावर मंदिर जहाँ राम ने शिवलिंग स्थापित कर पूजा की थी। यह स्थान भी चिलाव के पास है।

सीता एलिया (नुवारा एलिया)- यह वह स्थान माना जाता है, जहाँ रावण ने सीता माता को अशोक वाटिका में रखा था। यहाँ सीता अम्मन मंदिर भी स्थित है, जो माता सीता को समर्पित है।





भारत की यात्रा सिर्फ एक देश घूमने की नहीं, बल्कि आत्मा के हर कोने को छूने की प्रक्रिया है। यहाँ की विविधता, रंग-बिरंगी संस्कृति, स्वादिष्ट व्यंजन और अतिथि सत्कार मुझे आज भी बार-बार याद आते हैं। मेरी यह यात्रा केवल स्थानों की नहीं, भावनाओं और अनुभवों की थी। एक ऐसा अनुभव जिसे मेरे लिए शब्दों में समेटना बहुत ही मुश्किल है।


अनिता रोहलन 'आराध्यापरी'
निवासी- लाछड़ी, डीडवाना, राजस्थान


27 April 2025

मैं, एक खिलौना नहीं


मैं एक छोटा-सा सफेद खरगोश हूँ- नरम रेशमी बालों वाला, मासूम आँखों से दुनिया को देखने वाला। मेरा नाम कभी किसी ने नहीं रखा, और शायद रखा भी होता तो कोई पुकारता नहीं। मेरी दुनिया एक टोकरी में सिमटी हुई है, जो अक्सर एक औरत के हाथ में होती है।





ये कहानी है मनाली की, उस बर्फीले पहाड़ की जहाँ हर चीज़ पर एक सफेदी की चादर सी बिछी होती है। लोग आते हैं वहाँ सैर-सपाटे को, तस्वीरें खिंचवाते हैं, हँसते हैं, और फिर चले जाते हैं। और मैं... मैं वहीं का वहीं रह जाता हूँ- उस औरत की हथेली में, जिसने मुझे एक तमाशा बना दिया है।

सुबह से शाम तक वो औरत मुझे अपनी गोद में लेकर खड़ी रहती है और कहती है, 

"आ जाओ जी, सिर्फ़ 20 रुपए में फोटो खिंचवाओ प्यारे खरगोश के साथ!"

लोग हँसते हैं, बच्चे चिल्लाते हैं- "मम्मी खरगोश! मम्मी देखो, कितना क्यूट है!"  

कोई मेरी नाक को छूता है, कोई मेरे कान खींचता है। पर किसी ने कभी मेरी आँखों में झाँककर नहीं देखा... जहाँ ठंडी हवा से छलकते आँसू होते हैं।

हर कोई स्वेटर, जैकेट, दस्ताने और टोपी में लिपटा होता है। और मैं? बस एक नंगी जान हूँ, जिसे कोई महसूस ही नहीं करता। मेरे पाँव बर्फ पर ठिठुरते हैं, मेरा दिल हर छूअन से कांपता है, पर मैं चुप हूँ... क्योंकि मैं एक "खिलौना" हूँ ना!

शाम ढलती है, सूरज हिमालय की चोटियों में छिप जाता है। मैं सोचता हूँ- अब शायद घर जाकर चैन मिलेगा, गरमी मिलेगी। पर उस औरत ने मुझे न प्यार से उठाया, न कोई कंबल दिया। बस उसी पुराने लोहे के पिंजरे में डाल दिया जहाँ मैं रातें काटता हूँ।

मैं कोने में दुबक जाता हूँ। बाहर का शोर बंद हो जाता है, पर मेरे दिल में एक सन्नाटा गूंजता है। कभी सोचा है, जब खिलौना भी साँस लेता हो तो कैसा लगता है उसे खिलौना कहे जाना ?

काश... कोई मुझे सिर्फ़ 20 रुपए का न समझता।  

काश... कोई मेरी ठंडी साँसें सुन पाता।  

काश... मैं सिर्फ़ एक तस्वीर का हिस्सा नहीं, किसी के प्यार का हकदार होता।

मैं भी जीना चाहता हूँ... खुले मैदानों में दौड़ना, हरी घास में लोटना, किसी की गोद में चैन से सोना- बिना कैमरे, बिना पैसों के... बस दिल से।

मैं एक खिलौना नहीं हूँ। मैं भी महसूस करता हूँ क्योंकि

मैं भी एक ज़िंदा दिल हूँ।


                                                       - विकास बिश्नोई


ग्लोबल वार्मिंग और गांधी का दर्शन



    ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान समय की प्रमुख वैश्विक पर्यावरणीय समस्या है। यह एक ऐसा विषय है कि इस पर जितना सर्वेक्षण और पुनर्वालोकन करें, कम ही होगा। आज ग्लोबल वार्मिंग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिज्ञों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं वैज्ञानिकों की चिंता का विषय बना हुआ है। ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी ही नहीं बल्कि पूरे ब्रह्मांड की स्थिति और गति में परिवर्तन होने लगा है।





इनके कारण भारत के प्राकृतिक वातावरण में अत्यधिक मानवीय परिवर्तन हो रहा है। पृथ्वी के बढ़ते तापमान के कारण जीव-जंतुओं की आदतों में भी बदलाव आ रहा है। इसका असर पूरे जैविक चक्र पर पड़ रहा है। पक्षियों के अंडे सेने और पशुओं के गर्भ धारण करने का प्राकृतिक समय पीछे खिसकता जा रहा है। कई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर है। संवैधानिक रूप से प्रतिबंध के बावजूद जंगली जीव की संख्या कम हो रही है।

सम्पूर्ण ब्रह्मांड में पृथ्वी एक ऐसा ज्ञात ग्रह है जिस पर जीवन पाया जाता है। जीवन को बचाये रखने के लिये पृथ्वी की प्राकृतिक संपत्ति को बनाये रखना बहुत जरूरी है। इस पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान कृति इंसान है। धरती पर स्वाश्वत जीवन के खतरा को कुछ छोटे उपायों को अपनाकर कम किया जा सकता है, जैसे पेड़-पौधे लगाना, वनों की कटाई को रोकना, वायु प्रदूषण को रोकने के लिये वाहनों के इस्तेमाल को कम करना, बिजली के गैर-जरुरी इस्तेमाल को घटाने के द्वारा ऊर्जा संरक्षण को बढ़ाना। यही छोटे कदम बड़े कदम बन सकते हैं। अगर इसे पूरे विश्वभर के द्वारा एक साथ अनुसरण किया जाये।

गत सौ वर्ष में मनुष्य की जनसंख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। इसके कारण अन्न, जल, घर, बिजली, सड़क, वाहन और अन्य वस्तुओं की माँग में भी वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर काफी दबाव पड़ रहा है और वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। 

जनसंख्या दबाव के कारण आज गांव का पानी भी पीने योग्य नहीं रहा। जहां रहने के लिए जंगल साफ किए गए हैं, वहीं नदियों तथा सरोवरों के तटों पर लोगों ने आवासीय परिसर बना लिए हैं। जनसंख्या वृद्धि ने कृषि क्षेत्र पर भी दबाव बढ़ाया है। वृक्ष जल के सबसे बड़े संरक्षक हैं।  बड़ी मात्रा में उसकी कटाई से जल के स्तर पर भी असर पड़ा है। सभी बड़े-छोटे शहरों के पास नदियां सर्वाधिक प्रदूषित है। वायु प्रदूषण, गरीब कचरे का प्रबंधन, बढ़ रही पानी की कमी, गिरते भूजल लेबल, जल प्रदूषण, संरक्षण और वनों की गुणवत्ता, जैव विविधता के नुकसान, और भूमि का क्षरण प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों में से कुछ भारत की प्रमुख समस्या है।





  भारत में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण परिवहन की व्यवस्था है। लाखों पुराने डीजल इंजन वह डीजल जला रहे हैं जिसमें यूरोपीय डीजल से 150 से 190 गुणा अधिक गंधक उपस्थित है। बेशक सबसे बड़ी समस्या बड़े शहरों में है जहां इन वाहनों का घनत्व बहुत अधिक है। ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 25 तक कम करने का सरकार प्रयास कर रही है। प्रकृति की गोद में बैठ कर विकास करेंगे और प्रकृति के नियमों से छेड़छाड़ करेंगे तो दंड के भागीदार हम ही होंगे।

गांधी का दर्शन था कि आवश्यकता हो तब भी लालच मत करो, आराम हो तो थोड़ा हो और वह विलासता न बन जाए। धरती के पास सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन है किंतु किसी की लालच के लिए नहीं। गांधी प्रकृति द्वारा प्रदत संसाधनों को ईश्वर का सबसे अनुपम उपहार मानते थे। वे कहते थे कि इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए सृजित किया जाना चाहिए। जब तक प्रकृति में संतुलन है, तब तक परिस्थिति सही है। प्रकृति अपने नियमों के तहत निरंतर कार्य करती है, लेकिन लोग नियमित रूप से उनका उल्लंघन करते हैं।

पर्यावरण शब्द का प्रचलन तो नया है, पर इससे जुड़ी चिंता या चेतना नई नहीं है। पर्यावरण हवा, पानी, पर्वत, नदी, जंगल, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि के समन्वित रूप से है। यह सब सदियों से प्रकृति प्रेम की रूप में हमारे चिंतन, संस्कार में मौजूद रहे हैं। वर्तमान समय में प्रत्येक मनुष्य पर्यावरण को लेकर चिंतित तो है पर पर्यावरण को बचाने में सक्रिय सहभागी नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कि देश में भगत सिंह और राजगुरु जैसे देशभक्त पैदा तो होने चाहिए परंतु अपने घर में ना होकर पड़ोसी के घर में होने चाहिए। आज प्रत्येक आदमी को स्वच्छ परिवेश, स्वच्छ गलियां, सड़कें और स्वच्छ पर्यावरण तो चाहिए परंतु साफ करने वाला भी कोई और होना चाहिए। यह ठीक वैसा ही है जैसे दुनिया को सब लोग सुधारना चाहते हैं मगर अपने को कोई नहीं।

मानव का विकास पर्यावरण के दोहन के मूल पर हो रहा है। आगे हम विकास की ओर दौड़ रहे हैं, पीछे से विनाश दौड़ता आ रहा है। आदिकाल से मनुष्य और पर्यावरण का अन्योन्याश्रय संबंध रहा है। वर्तमान समय में सबसे चिंताजनक समस्याओं में से एक पर्यावरण की समस्या है। यह समस्या मनुष्य प्रकृति से प्राकृतिक संसाधनों के अनर्गल दोहन से उत्पन्न हुआ है। पशु-पक्षी, जीव-जंतु, पेड़ पौधे, नदी-तलाब, खेत-खलिहान आदि से हमारे समाज का निर्माण हुआ है। 

मनुष्य अपनी सुविधा संपन्न जीवन जीने के लिए इन सभी का दोहन करता है। पर्यावरण के क्षय के कारण स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी उत्पन्न हो रही है। बेतहाशा प्रकृति के शोषण का दुष्परिणाम भी ग्लोवल वार्मिंग, तेजाबी वर्षा, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूस्खलन, मृदा प्रदूषण, रासायनिक प्रदूषण, समुंद्री तूफान आदि के रूप में सामने आने लगा है।

    गांधी जी भारत की आजादी के प्रति जितने चिंतित थे, उससे कहीं ज्यादा विश्व पर्यावरण के प्रति चिंतित दिखाई पड़ते थे क्योंकि गांधी जी का चिंतन वसुधैव कुटुंबकम की भावना में हीं था। उन्होंने विश्व भर में लगातार हो रही वैज्ञानिक खोजों के कारण पैदा हो रहे उत्पादों और सेवाओं को मानवता के लिए घातक बताया था। उन्होंने 1918 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन को संबोधित करते हुए चेतावनी दी थी कि विकास और औद्योगिकता में पश्चिम देशों का पीछा करना मनावता और पृथ्वी के लिए खतरा पैदा करना है।

गांधी ने कहा था कि एक ऐसा समय आएगा, जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग, अपने किए को देखेंगे और कहेंगे कि  हमने ये क्या किया ? उपभोक्तावादी तथा विलासी जीवन संस्कृति व दोषपूर्ण विकास नीति के कारण पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों का जैसे जंगल, जल स्रोत, खनिज संपदा आदि समाप्त एवं प्रदूषित हो रहे हैं। सबसे ज्यादा नुकसान जंगलों को हुआ है। 





विश्व के अधिकांश पहाड़ नंगे हो गए हैं और प्राकृतिक वन समाप्त हो रहे हैं। आबादी बढ़ने के साथ जंगलों में कुछ कमी आना तो स्वभाविक था पर जंगलों का अधिकांश विनाश कागज, प्लाईवुड, कार्डबोर्ड आदि के कारखानों, विलासी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा भ्रष्टाचार के कारण हुआ। जंगलों के बिना से भूमि का कटाव हो रहा है। भूमिगत जल का स्तर नीचे जा रहा है। वर्षा व मौसम का चक्र बिगड़ गया है। जंगलों पर निर्भर रहने वाले करोड़ों लोगों की जिंदगी दुसर होती जा रही है और वे उजड़ रहे हैं।

  पर्यावरण और पारिस्थितिकी को लेकर गांधी का मानना था कि प्रकृति पालक के रूप में देखी जानी चाहिए, ना कि हमारी विलासिता का हिस्सा होना चाहिए। उसके विपरीत हम प्रकृति, पृथ्वी, नदी व वनों का प्रायोग मात्र अपनी विलासिता के लिए कर रहे है। 

परिणामस्वरूप आज दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिग जैसे बड़े मुददे हमारे सामने है, जिसके दुष्परिणाम आज हम किसी न किसी रूप में झेल रहे है। हम इन सब दुष्परिणामों को देखने के बाद भी प्रकृति को समझने में असफल रहे। स्वच्छ समाज उनकी कल्पना का हिस्सा था। देश के विभिन्न जगहों पर मौजूद कूड़े के पहाड़ निकट भविष्य के प्रमुख संकट है। गांधी ने उसी समय यह कहा था कि स्वच्छता से स्वास्थ्य व चरित्र का निर्माता होता है, जो आज के परिप्रेक्ष्य में सटीक बैठता है।





नदी पर हम बांध बनाने की बात बातें करते हैं। नदियों को जोड़ने की बात करते हैं। किंतु उसकी सफाई पर विशेष ध्यान नहीं देते। जलीय जीव विलुप्त होने की स्थिति में है। नदियों की गहराई विभिन्न जलीय जीवों को आकर्षित करती है। घड़ियाल, डॉल्फिन और मगरमच्छ ठंडे एरिया में नहीं रहना चाहते हैं, जहां छोटी मछली मिलती है। जलवायु परिवर्तन से विनाश की स्थिति सामने आएगी। इससे बाढ़ और सूखा दोनों स्थिति उत्पन्न होती है। 2050 तक समुंद्र जल मग्न हो जाएगा। इससे नदियों के किनारे बसने वाला सभ्यता स्वतः ही नष्ट हो जाएगी। कृषि उत्पादकता प्रभावित होगी।

बैराज के कारण जो स्वच्छ जल उत्तराखंड में मिलता है, वह दक्षिण के राज्यों तक नहीं मिल सकता क्योंकि बीच में दूसरी नदियों व नालों ने उसे दूषित कर दिया है। देश में धार्मिक नदियों की कमी नहीं है। उत्तर प्रदेश से दक्षिण तक अनेक परिवार है जो गंगा पर निर्भर है। गंगा नदी के किनारे 40 करोड़ से भी अधिक लोग रहते हैं। हिन्दुओं के द्वारा पवित्र मानी जाने वाली इस नदी में लगभग 2,000,000 लोग नियमित रूप से धार्मिक आस्था के कारण स्नान करते हैं। इस वर्ष महाकुंभ में करोड़ों श्रद्धालुओं ने आस्था की डुबकी लगाई। 

      भारतीय संस्कृति के अनुसार वृक्षारोपण को पवित्र धर्म मानते हुए एक पौधे को कई पुत्रों के बराबर माना है और उनको नष्ट करने को पाप कहा गया है। हमारे पूर्वज समूची प्रकृति को ही देव स्वरूप देखते थे। प्राचीन काल से मनुष्य के जीवन में पशुओं तथा वन्य जीव-धारियों के संरक्षण के उद्देश्य से देवी-देवताओं की सवारी के रूप में संबोधित किया गया है।

      वृक्ष कितने भाग्यशाली हैं जो परोपकार के लिए जीते हैं। उनकी महानता है कि यह धूप-ताप, आंधी व वर्षा को सहन करके भी हमारी रक्षा करते हैं। जंगलों का विनाश राष्ट्रों के लिए तथा मानव जाति के लिए सबसे खतरनाक है। समाज का कल्याण वनस्पतियों पर निर्भर है और प्राकृतिक पर्यावरण के प्रदूषण का कारण और वनस्पति के विनाश के कारण राष्ट्र को बर्बाद करने वाली अनेक बीमारियां पैदा हो जाती है। तब चिकित्सीय वनस्पति की प्रकृति में अभिवृद्धि करके मानवीय रोगों को ठीक किया जा सकता है।





दुनिया के सभी देश धन का घमंड छोड़ पूरी धून के साथ मानव निर्मित पर्यावरण के सुधार में इतनी ईमानदारी, समझदारी और प्रतिबद्धता के साथ जुट जाए ताकि कुदरत के घरों में भी बचे और हमारे आर्थिक सामाजिक व निजी खुशियां भी। कुदरत से जितना और जैसे ले उसे कम-से-कम उतना और वैसे ही लौटाए। समय रहते नहीं चेते तो अज्ञात बीमारी का महामारी के रूप में फैलना सम्भव है। 

अगर जनसंख्या दबाव को नियंत्रित तथा पर्यावरण को संरक्षित नही किया गया तो दीर्घकालीन समय में कुछ ऐसे रोग उत्पन्न हो सकते हैं, जिसका इलाज ही संभव न हो। ऐसे में पृथ्वी के प्राणियों के लिए अत्यंत दुखदायी होगा। अतः पृथ्वी को बचाने के लिए जो भी उपाय हमें अपनाना पड़े उसे त्वरित निर्णय लेकर करनी चाहिए।

     साफ वातावरण फ्री में नहीं मिलेगी। हमें प्रकृति वातावरण को स्वच्छ बनाने के लिए निवेश करना होगा। इससे सरकार की सहमति एवं जनसाधारण की भागीदारी होनी जरूरी है। पर्यावरण को पूर्वजों से जुड़ना होगा। पेड़ फल भी देगा। छाया भी देगा और लकड़ी भी । पेड़ लगाने से रोजगार और उत्पादकता में वृद्धि होगी। 

भारत ने प्रकृति से प्रेम करना दुनिया को सिखाता रहा है। आज हम ही उदासीन हो गए हैं। बढ़ती जनसंख्या सभी समस्याओं की जड़ है। प्रभावपूर्ण नीति लानी होगी। कीगार्ड वृक्षों की रक्षा करने के लिए लगाएं। संसाधनों का प्रबंधन ठीक करें। पर्यावरण को स्वच्छ और सुरक्षित करना होगा।


                                        - डॉ. नन्दकिशोर साह


ग़ज़ल- चलता जीवन



गुस्से में भी अपनापन है,
अब समझा में अपनापन है।

अस्र , नहीं पड़ता सपनों का,
चंदन तो आखिर चंदन है।

रुकने की गलती मत करना,
चलते रहना ही जीवन है।

तारीफों में कसर न छोड़ी,
सबका अपना-अपना फ़न है।

खुलकर बरसे चाहे गरजे,
होने को वैसे सावन है।

कब जाएगा सोचा कैसे,
मनमौजी होता पाहुन है।

माना मुझमें भी कमियाँ है,
उजला पर किसका दामन है।

- रामस्वरूप मूंदड़ा, बूँदी


कविता- घर




बड़ी दूर निकल आया
मैं घर बनाकर घर को ही
घर के हवाले छोड़ आया
बड़ी दूर निकल आयाl

घर के आंगन की मिट्टी में
हरी हरी जो घास उगी थी
कहीँ कहीँ उसमें थोड़े से
रंग बिरंगे फूल खिले थे
अपने ही हाथों से मैं
उन फूलों को तोड़ आया
बड़ी दूर निकल आया
मैं घर बनाकर घर को ही
घर के हवाले छोड़ आयाl

चह चहाती चिड़ियाँ आतीं
सुबह सुबह जो शोर मचाती
मुझको गहरी नींद से जगातीं
थोड़ा बहुत दाना चुगकर
पानी पीकर जो उड़ जातीं
मैं उस पानी के वर्तन को
उल्टा रख कर छोड़ आया
बड़ी दूर निकल आया
मैं घर बनाकर घर को ही
घर के हवाले छोड़ आयाl

पैरों की जब आहट होती
गेट की कुंडी ठन ठन करती
किट्टु कैरी दौड़ी जाती
कोई तो मेहमान है आया
मैं उस गेट की कुंडी को
ताले चाबी से जोड़ आया
बड़ी दूर निकल आया
मैं घर बनाकर घर को ही
घर के हवाले छोड़ आयाl

- जीवन जेके, बिलासपुर


कविता- हाँ मैं कविता हूँ




हां मैं कविता हूं
मन की धरा पर भावों की कविता
प्रथम जो हुई थी प्रस्फुटित,
वह क्रोंच पंक्षी के प्रेमी युगल की
पीड़ा को देख हुई थी घटित।
उस पीड़ा के अनुभव से,
हुए थे बाल्मिकी द्रवित।
और तत्क्षण ही जो शब्द,
हुआ था उच्चरित।
वही तो था प्रथम कालजयी कविता।
मन की धरा पर भावों की कविता।
हां मैं कविता हूं
जो मन की धरा पर छुपकर
चित्र उकेरा करती हूं ।
पीड़ा की नमी पाकर,
नव पल्लव सा मै खिलती हूं।
मै ही तो राधा बनकर
श्याम की बंशी बजाती हूं
मै ही तो बनकर मीरा
भक्ति की राह दिखाती हूं
मै ही द्रोपदी के चीड़ में
पीड़ा बनकर रोई हूं
मै ही तो अहिल्या बन,
निष्पाप कलंकित के अश्रु से
पाषाण बन कर सोई हूं,
हां मै ही तो हर मन की धरा पर
भावों की कविता हूं,
नेह, प्रेम व पीड़ा से सिंचित होकर
कवि के उर में बिखरती हूं।
हां मैं कविता हूं।


- रत्ना बापुली, लखनऊ


24 April 2025

मेरे इश्क की निगाहों का दर्द







 ये जो तुमने बेवजह 
 बेमतलब का शोर मचा रखा है,
 मुझे तुम्हारे चेहरे पर नजर आ रहा है।

 कितना दर्द है तुम्हारी निगाहों में,
 बताओ मुझे, तुमने इस दर्द को,
 अपने दिल के अंदर धड़कनों में,
 कितने वर्षों से छुपा रखा है,
 बताओ मुझे तुम 
कितने वर्षों से शांत हो,
 चिंता मत करो,
 ये दुनिया वाले,
 नहीं सुन पाएंगे हमारी बातें
 मैंने इन दुनिया वालों को,
 एक तुम्हारे लिए बस
 लोरी गाकर के सुला रखा है।

 इस दुनिया के, किसी  
 समंदर की लहरों ने 
 तुम्हारे साथ बदतमीजी
 की है क्या ?
 सुनो बता दो मुझे आज 
अपने दिल की धड़कनों का हाल
 क्योंकि मैं तो तुम्हें बचपन से,,
 अपने दिल का 
मेहमान बना रखा है।

 जिंदगी तो जिंदा 
और खूबसूरत ख्वाबों का नाम है
 क्या कभी तुमने अपने आप 
को आईने में देखा है,
 ये,,क्या तुमने अपना
 मर्दों सा हाल बना रखा है
 ये जिंदगी जो तुम्हारी
 शमशान हो गई है।
  जर्जर पुराना मकान
 हो गई है।

 मुझे लगता है
  ये,इस दुनिया की बदौलत है
 कोई बात नहीं,
  हम इस बेरहम दुनिया की,
 निगाहों से,
 दूर कही चले जाएंगे,
 न,अब हमें
 ये दुनिया जान पाएगी
 न अब हम बेरहम दुनिया को,
 नजर आएंगे
 तुम्हारा साथ मैं,
 अपनी आखिरी सांस तक दूंगा
 ये वादा है मेरा
 अब तुम्हारी जिंदगी में सिर्फ
 प्यार,मोहब्बत, इश्क
 और खुशियों के
 गुलाब नजर आएंगे।

 क्योंकि तुम मेरी मोहब्बत हो
 और मैंने अब सें,
 तुम्हें खुश रखना हीं,
 अपनी जिंदगी का 
मकसद बना रखा है।

                                       - आकाश शर्मा आज़ाद