साहित्य चक्र

24 December 2023

एक साथ पढ़िए 20- कविताएँ





दर्द-ए-दिल में दिवानगी आए
जब मुझे वो सँभालती आए
हिज्र¹ हो दर्द हो क़यामत हो
आशिक़ी में रवानगी आए
तुम गए मौत पास आने लगी
तुम जो आओ तो ज़िन्दगी आए
अब अगर आए वो मुझे मिलने
बैर दिल से निकालती आए
ज़ात के भेद को न माने जो
कोई ऐसी बिरादरी आए
तेरे रुख़ को ही देखकर सूरज
चाँद के तन पे रौशनी आए
रोज़ देखा करो ग़रीबों को
तंग दिल में कुशादगी आए
दर्द-ए-दिल को भी जो करे शाया
कोई ऐसी अकादमी आए
अब भरोसा नहीं है लोगों पर
जो भी आए बनावटी आए
लोग नौकर कहाँ से लाएंगे
झूठ कहते बराबरी आए
ख़त्म कर दे जहाँ से जो वहशत
कोई ऐसा महाबली आए
क्या किया जाए ऐसा अब 'मीरा'
दुश्मनों को भी दोस्ती आए

- मनजीत शर्मा 'मीरा'

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!! रचनात्मक बदलाव !!

किसानन की भलाई के लानें
अपँए देस की प्रगति के लानें
भारत मैया की उन्नति के लानें
सीता मैया की जय जयकार होबै
गांव की अन्नपूर्णा भूकीं नँइ सोबे
खेतन पै किसान रमटेरा गाबै
सीमन पै जबान दुसमन कौ ललकारै
वैज्ञानिक प्रगति के यंत्र बनाबैं
सबरे मिलकैं
अपँए भारत कौं जगद्गुरु बनाबैं
बेरोजगारी कटै
लाचारी फटै
मौड़ी मौडा़ पढैं
बिसमता हटै
समता बढैं
जौइ बदलावकारी मंत्र
सब जने रटैं
धरती मैया की गोद हरीभरी रए
नदिया नारे पानू देवें
पहाड़ पर्वत और ऊंचे उठें
चिरैया चिरवा सुआ
और तरह-तरह के पंछी
गीत खुशी के गाबैं
पेड़ पौधे बन बगीचे में
नित बसंत बौराबै
अपुन कौ ऐसौ बदलाव लानें।।

- डॉ० रामशंकर भारती

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!! मुश्किल !!

मुश्किल से तुम आए हो
मुश्किल से हम आए हैं
मोहब्बत नहीं है दो तरफा
फिर भी हम
इश्क अपना आजमाएंगे।
मुश्किल से रास्ता मिला है
मुश्किल से सफर शुरू किया है
हमसफर नहीं है कोई
फिर भी हम
जुनून अपना आजमाएंगे।
मुश्किल से ख्वाब संजोय है
मुश्किल से अधिकारों के लिए जागे है
साथ नहीं देता कोई
फिर भी हम
कर्तव्यनिष्ठा अपनी आजमाएंगे।
मुश्किल से जीतना सीखा है
मुश्किल से हारकर सबक लेना सीखा है
मार्ग नहीं दिखता कोई
फिर भी हम
स्वयं को मार्गद्रष्टा बन आजमायेंगे।

- राजीव डोगरा

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!! नहीं समझते !!

सागर की गहराई, ये किनारे नहीं समझते,
चाँद की चाँदनी को, सितारे नहीं समझते!
देखकर मिलता है सुकूँ मेरी आँखों को,
इसका अहसास वो नज़ारे नही समझते!
ढेरों जिम्मेदारियों से घिरी है ज़िंदगी,
समस्या का हल, कुछ बेचारे नहीं समझते!
एक जीवनसाथी हो, सभी के जीवन में,
यही बात तो देश के कुँवारे नहीं समझते!
ठहराव भी ज़रूरी है हर सफरनामे में,
इस राज़ को क्यों बंजारे नहीं समझते?
देनी है अग्निपरीक्षा हर कदम पर मुझको,
पैरों की जलन को, अंगारे नहीं समझते!
कितनी भी कोशिश कर लूँ समझाने की,
हाल ए दिल लोग सारे नहीं समझते!
बेहद नादान हैं संगदिल सनम मेरे,
जो इन आँखों के इशारे नहीं समझते।


- आनन्द कुमार


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जब कभी अकेले में मुस्कुराती हूं,
कुछ बीते लम्हों में खो सी जाती हूं।

अब क्या ही बताऊं, उन बीते लम्हों की दास्तान।
यह वह लम्हे है, जो चार शब्दों में कहां कहे जाते हैं।

थोरा तो वक्त दीजिए जनाब!
कभी आएं! पास बैठे हमारे, एक कप चाय और कुछ बातें करेंगे।

आओ हम साथ बैठकर बीते लम्हों को याद करेंगे।
चलो तुम्हें ले चलते हैं उन बीते लम्हों में, अपने स्कूल के दिनों में।

क्या तुम्हें याद है वो दिन, जब मेरे ना दिखाई देने पर,
तुमने पूरा स्कूल अपने सर पर उठा लिया था।

और मेरे मिलते ही मुझे अपने गले से लगा लिया था।
कितना सुकून था उस बीते हुए लम्हों में,
तुम्हारे साथ जो वक्त बिताए थे स्कूल में।

दोस्ती हमारी कुछ ऐसी थी,
जो औरों को लगती अतरंगी सी,
कदम-कदम पर साथ चले थे हम,
एक दूसरे के ढाल बने थे हम।

हां ये वोही बीते लम्हे है, जो हमने मिल कर साथ बिताए थे।
थोड़ी सी ना समझी तुमने और थोड़ी मैने दिखाएं थे।
हां हमने उन बीते लम्हों के वो पल कितने हसीन जिए थे।


- दीपशिखा

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!! अनमोल पल !!

वे दिन भी थे कितने अनमोल
रिश्तों का ना कोई माप तोल
हर आंगन थी खुशियां बंटती
गौरैया थी हर घर में चहकती
तज कर आपसी वैर विरोध
ना कोई ईर्ष्या ना ही क्रोध
बीत गए लम्हात ज़िंदगी के
गुफ्तगू के थे अपने सलीके
घर में जब कुछ अच्छा बनता
आपस में वह था जरूर बंटता
किसी चीज का होता था अभाव
मांग कर लाते ना मोल ना भाव
भरी दुपहरी की धूप भारी
पंखे एसी ना कूलर से यारी
आंगन में सजती थी चारपाई
मिलकर सोते थे भाई-भाई
अब याद आती वह सारी बातें
सुखमय गुजारी थी दिवस रातें
पल में रूठना पल में मनाना
बीत गया वह अल्हड़ जमाना
न जाने कहां से आ गई दरारें
आंगन बंट गए बीच दीवारें
न वह प्रेम ना रही संवेदना
पाषाण हृदय ना रही वेदना

- वसुंधरा धर्माणी

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जिस्म में सारे अब तो बिजलियां मचलती है,
चांदनी तारों से सजी खुशनुमा सी लगती है,

रात के सन्नाटे में पायलें ज़ोर से ख़नकती हैं,
इंतेज़ार की तुमने तो इंतेहा ही कर डाली,

कली कोई करवटें किस तरह बदलती है
जिस्म का हर अज़ु,देखिये कैसे मुस्कुराता है,

आमद से उनके आंखों में रौशनी चमकती है,
इंतेज़ारे यार है,बैचैनियां तो बढ़ेंगी ही हमारी,

निगाहे नाज़ ये दरवाज़े पर ही रहा करती हैं,
ख़त लेकर आज उनका कोई ज़रुर आयेगा,

तेज़ बहुत तेज़ दिल की धड़कनें मचलती हैं,
इंतेज़ार ख़त्म हुआ ,"मुश्ताक़" आगए देखो न,

जिस्म में सारे अब तो बिजलियां, मचलती हैं,

- डॉ . मुश्ताक़ अहमद शाह

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!! सड़क दुर्घटना (आंखों देखी) !!

गुजरते वक्त सड़क में मंजर ऐसा देखा
दुर्घटना में घायल तड़पता शख्स देखा
चारो ओर से घेरे भीड़ उसे खड़ी थी
दर्द से तड़पती मूर्छित काया पड़ी थी
सैकड़ों लोगों में चार हाथ न बढ़कर आए
जल्दी उसे उठाकर अस्पताल पहुंचाये
ऑन कई हाथ में कैमरा था
वीडियो बनाए कोई फोटो खींच रहा था
कोई देख आगे बढ़ता कोई बेख़बर गुजर रहा था
उसको थी जिसकी जरूरत वो कोई नहीं कर रहा था
रुकती टूटती सांसे अब थम गई
आंखे खुली रही नब्ज़ जम गई
आंख सूखी किसी की नम भई
एक कर सारी भीड़ भी रम गई
सैकड़ों सवालों में एक बात सामने आई
मानवता पर अमानवता ने विजय पाई
मानवता पर अमानवता ने......

- नरेन्द्र सोनकर बरेली


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बेटों को बचाओ नशा छुड़ाओ

आजकल बेटियों को बचाने पर सबका है जोर
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ बस एक यही है शोर
बेटियां तो अपनी मेहनत से आगे बढ़ रही हैं
लेकिन इस अनदेखी में बेटा हो गया है कमज़ोर
बेटी और बेटा दोनों से ही इस ज़हां की है शान
एक भी न हो तो यह महकता गुलसिताँ है वीरान
बेटियों पर दे रहे जरूरत से ज्यादा तब्बजो
बेटों पर कम हो गया है सभी का ध्यान
थोड़ा ध्यान अब बेटों पर भी दीजिए
समय बीत रहा है देर मत कीजिये
नशे की गिरफ्त में जो फंस गया है युवा
सही रास्ते पर आ जाएं ऐसा कुछ कीजिये
उनके साथ बैठिए कुछ समय निकाल
क्या समस्या है जानिए उनके दिल का हाल
प्यार यदि उनको माँ बाप का मिल जाएगा
यकीन मानिए बदल जाएगी उनकी चाल
अपनी इच्छाएं मत थोपिए जो चाहें वही करने दीजिए
समझदार और बड़े हैं वो भी टोकाटोकी मत कीजिये
वो क्या करना चाहते हैं क्या उनके दिल में है
मन से करेंगे तो अच्छा ही होगा यह मान लीजिये

- रवींद्र कुमार शर्मा


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गीत अपनी वफा के में गाती रहूं,
तुम बनो जो मेरे गुनगुनाती रहूं ।
हो जवां दिल तो फिकर किस बात की,
तुम भी हंसते रहो मैं हंसाती रहूं
खुशबू बनकर बिखर जाओ संसार में,
मैं सबक सब को यही पढ़ाती रहूं
सबके गम को समझ लूं मैं अपना ही गम,
काम दुनिया के हर पल में आती रहूं
फूल सब को मोहब्बत के में भेज कर,
और जमाने से नफरत मिटाती रहूं
जिंदगी के गुलशन में सीमा यही,
चाहती है कि बस मुस्कुराती रहूं।

- सीमा रंगा इन्द्रा

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वे घूंघट में ही नहीं सिमटी
सिमट गई घर की चार दिवारी में
घर के झाडू-पोचे में
खेती-बाड़ी में बच्चों में रिश्तेदारों में
घर के हर कोने में
सुबह से रात होने तक
रात से सुबह होने तक
सिमट गई रोजमर्रा के कामों में
और सिमट गई सौंदर्य में
थोड़ी फुर्सत में सँवारती हैं बाल
लगाती हैं बिंदी,सजाती हैं मांग
लगाती हैं काजल
निहारती हैं दर्पण
मन डूबा हैं
कोमलता में
लेकिन तन झरा जा रहा होता है
वक्त की झिरी से बड़ी रफ्तार के साथ।
स्त्रियां
नहीं सुनना पसंद करती हैं
आंटी माँ या बहनजी
किसी दूसरे के द्वारा सम्बोधित करने पर
जबकि
झुर्रियां उनको धकेल रही हैं
अंतिम पड़ाव की ओर।
वे नहीं समझ पाई
परिपक्वता की परिभाषा
बूढ़ी छाल का खुरदरापन
क्योंकि
पाले बैठी हैं अपने हिस्सें की उम्मीद
जो अभी भी
अधूरी हैं।

- संतोषी

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क़ुबूल है ज़िंदगी का हर तोहफ़ा
मैंने ख़्वाहिशों का नाम,बताना छोड़ दिया

जो दिल के क़रीब हैं, वो मेरे अज़ीज़ हैं
मैंने ग़ैरों पर हक़, जताना छोड़ दिया
जो समझ ही नहीं सकते दर्द मेरा
मैंने उन्हें ज़ख़्म, दिखाना छोड़ दिया

जो गुज़रती है दिल पे, हक़ीक़त है मेरी
मैंने दिखावे के लिए, मुस्कुराना छोड़ दिया

जो महसूस नहीं करते ज़रूरत मेरी
मैंने उनका साथ, निभाना छोड़ दिया

जो चाहते हैं रहना बस नाराज़ मुझसे
मैंने उन्हें बार बार, मनाना छोड़ दिया

जो मेरे अपने हैं, वो मिलेंगे ज़रूर मुझसे
मैंने बेवज़ह बंदिशें, लगाना छोड़ दिया

- कैसर शन्नो

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!! प्रकृति !!

सुना रहा कोई राग मधुर,
खग की भाषा भी है रुचिर।
नभ का है सिर पर वितान,
कोई पिक गाए सिक्त तान।।
हरित कंचुक धरे धरा,
पवमान सौरभ से पगा।
पड़ती दृष्टि जब क्षितिज पार,
मानो…. सृष्टि ने पहना हो अनलहार।।
विराट वैभव दिखा रही,
मर्कटमन को रिझा रही।
जाने रहस्य जो तेरा कोई,
तृपित रहता नर वही।।

- वीरदत्त गुर्जर


बेचारी कुर्सी किसको
छोड़ किसको वरण करें।

बेचारी कुर्सी किसको मिलेगी,
चार पैर पर खड़ी हुई चलेगी।
तीन पैरों पर संभल नहीं सकती है,
मर्यादा पुरुषोत्तम बन सकती है।
कुर्सी की कशमकश लगी रहती है,
तीन पैरों पर लड़खड़ाती जुबान लगती है।
साम दाम दण्ड भेद सभी गुण गाते है,
कुर्सी पाने के लिए बहुत जोर दिखाते है।
नेताओं में घमासान मचा रहता है,
देश का सम्मान कुर्सी से टिका होता है।
वोटों का सौदा खूब जमाते है,
नोटों की ताक़त राजनीति में उड़ाते है।
ग़रीबी का हर पल मज़ाक बनाते है,
हमदर्दी का मलहम चुराकर लाते है।
राजनीति की कुर्सी वफादार नहीं होती है,
एक को छोड़कर दूसरे को बैठा लेती है।

- क्रांति देवी आर्य

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जिंदगी...!

जिंदगी... बड़ी बेरहमी से सच दिखती है।
कितना भी... बहलाते रहे खुद को।
ऐसा नहीं है...?
ऐसा हो नहीं सकता...!
जबकि.... ऐसा ही था!
साथ सच के बीते लम्हों की हर बात को
बड़ी खामोशी से बयां कर जाती है ।
जिंदगी बड़ी बेरहमी से सच दिखती है ।
जिंदगी सच को बड़ी बेरहमी से दिखती है।
झूठी उम्मीद को पाल-पाल कर।
लाख कोशिश करें कोई टूटी उम्मीदों को फिर से संभाल कर।
जिंदगी उम्मीद से भी उसकी उम्मीद छीन लेती है।
जिंदगी बड़ी बेरहमी से सच दिखती है ।
जिंदगी सच को बड़ी बेरहमी से दिखती है।
अपना -अपना कहकर
जोड़ते रहे उमर भर छत और दीवारों को।
जिंदगी बड़ी बेरहमी से उन घरों के दरवाज़े गिरा कर निकल जाती हैं।
जिंदगी बड़ी बेरहमी से सच दिखती है ।
जिंदगी सच को बड़ी बेरहमी से दिखती है।
मतलब तक जो मतलब रखते रहे।
मतलब से चले और मतलब को साथ लाते रहे।
वक्त बदलते ही जिंदगी लबों से जिक्र तक हटाती है।
जिंदगी वक्त बदल- बदल कर
जिंदगी को सच का वह पाठ पढ़ती है।
जान कर भी हम सच को अनदेखा करते है।
शायद ..इसी लिए सच को इस तरह से सामने लाती है।
जिंदगी बड़ी बेरहमी से सच दिखती है ।
जिंदगी सच को बड़ी बेरहमी से दिखती है।

- प्रीति शर्मा "असीम"


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!! पिंजरे के पंछी की दास्ताँ !!

मत छीनो हमारी आजादी उड़ने दो खुले गगन में।
हमें भी आन्नद है आता सूर्य की लालीमा को छूने में।।

पिंजरे में रहकर हम अपने पंखों की महता को भूल हैं जाते।
ये कौन सा शौक है जो दूसरों की आज़ादी को छीन है जाते।।

हम तो जगह जगह का दाना पानी करते हैं पसन्द।
शायद इसी में आता है हमें आन्नद।।

पिंजरे का दाना पानी लगता है हमें जहर।
चाहे इसमें क्यों न हो चावल और अरहर।।

हम पंछियों से वातावरण में रौनक सी है आती।
हमारे मधुर संगीत से चहुँ ओर खुशहाली सी है छाती।।

इंसान से विनती है पिंजरे में हमें कैद मत करना।
हम से तो क्या भगवान से जरूर डरना।।

- विनोद वर्मा

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।। भोजपुरी में कुछ कुछ ।।

मुंहदेखउवल कइल त तोहरा खून में बा
लड़े के फितरत हमनी के जुनून में बा।
जानेला सभे देला के रेवड़ी बेर बेर अपने के
खा के मुकर जाला ऊ दिक्कत का नून में बा।
बेईमानी आ बदनीयत तोहार केकरा से बा छुपल
आपन चीचहीरी बड़ पारीं मज़ा सुकून में बा।
दही के छाली बनल ओकर आदत बा पुरान
आजो ओकरा लागेला कि जंगल के कानून बा।
काहे बनेलें प्रधान मजबूर अपने लोगवन में
सांच बा कि तोहरो में उहे भेदभाव के घुन बा।
अखिल भारतीय से नीचे कवनो बात ना होई
संस्था में भले तीन गो लोगवा कारकून बा।

- संतोष पटेल

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तू मेरे मन मे समा जाए तो कोई बात बने
कभी मुझे अपने दिल की बात बता जाए कोई बात बने
तू मेरे मन मे..
यू बात बात पर रूठने की आदत तू छोड़ दे अब
कभी अब मैं रूठूँ और तू मनाये तो कोई बात बने
तू मेंरे मन मे..
बड़ा दिलकश अंदाज है तेरा किसी से मिलने का
कभी तू खुद को मुझसे मिलाये तो बात बने
तू मेरे मन मे..
सुना है कि तू करता है बाते बहुत मीठी मीठी
कुछ बाते जो अब मेरे संग गुनगुनाये तो बात बने
तू मेरे मन मे..
कटते नही है अब तुमसे दूर रहकर जुदाई वाले पल
आके अब मुझको अपना बना जाए तो कोई बात बने
तू मेरे मन मे……।।

- पवन कुमार


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!! मेरा शहर जलरहा है !!

वो कहते हैं शांति है अमन है
चैन है सब ठीक चलरहा है,
पर कैसे मान लूँ मैं...
देखिए मेरा शहर जलरहा है...
गली गली मे दारू गांजा स्मेक
सरेआम नुक्कड़ पे चलरहा है,
सट्टाबाजार जुये का फड़ भी
यहां पर अब खूब फलरहा है,
देखिए मेरा शहर जलरहा है...
आवारापन है बेहयाई भी है
बेशर्मी का ये दौर चलरहा है,
सार्वजनिक स्थलों पर लोगो
खूब नयनमटक्का चलरहा है,
देखिए मेरा शहर जलरहा है...
टूट रही हैं कड़ी विश्वास की
इंसान इंसान को छलरहा है,
सामने तो हलुआ है मेवादार
पीछे से साजिशें तल रहा है,
देखिए मेरा शहर जलरहा है...
घर घर असलाह नम्बर दो के
सब अवैध अवैध चलरहा है,
खनिज खदानों पर जा देखो
धरा का चीरहरण चलरहा है,
देखिए मेरा शहर जलरहा है...
सब मौन हैं मूक बधिर हैं
प्रशासन हाथ मलरहा है,
वो कहते हैं शांति है अमन है
चैन है सब ठीक चल रहा है,
पर कैसे मान लूं मै ये सब
देखिए मेरा शहर जलरहा है...

- राणा भूपेंद्र सिंह

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कठिन दौर में

पुरुष के सबसे कठिन दौर में
जब वह नहीं कर पाए फर्क
धरती और आसमान में
जब पहचान न पाए
पुरुष को पुरुष की तरह
स्त्री को स्त्री की तरह
जब होने लग जाए थोड़ा कड़वा
या जब नहीं सूझे कोई रास्ता
और चलता जाए एकांत के रास्ते पर
जब अकेलेपन की पीड़ा
अंदर ही अंदर से
उसे खोखला कर दे
किसी खोल की तरह
जब थक हार कर बैठ जाए
जीवन की अनिश्चितता के आगे
या खुद की अनिच्छाओं के बोझ से दबी
कराह रही हो उसकी देह
जब समुद्र और रेगिस्तान दोनों लगने लगे एक जैसे
जब प्रेम छिटक जाए उसके जीवन से
जब नहीं बचा हो कोई विकल्प
सिवाय अंतिम यात्रा के
मैं पूर्ण आश्वस्त हूँ
कि पुरुष के उस सबसे कठिन दौर में भी
एक स्त्री उसे बचा लेगी।

- मेवा राम गुर्जर

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