साहित्य चक्र

08 January 2025

कविता- मोबाइल की हैसियत




कैसा ज़माना आया आज
आदमी क्या से क्या हो गया
जिंदा इंसानों की कद्र नहीं
मोबाइल में इस कदर खो गया

समय नहीं है बार बार यह है बतलाता
मोबाइल पर ही अपना समय है बिताता
बर्बाद कर रहा समय इसके चक्कर में
खत्म कर दिया इसने सब रिश्ता नाता

लिखना भी भूल रहा इसी पर सब लिख जाता
घड़ी कोई नहीं डालता यही अब समय है बताता
गुणा भाग जमा घटाना सब तुरंत है कर देता
हर घर की जरूरत आज है मोबाइल बन जाता

छोटा हो या बड़ा सबको इसने है घुमाया
दिमाग कर दिया कमज़ोर जब से हाथ में है आया
अब तो जेब में पैसा रखने की भी ज़रूरत नहीं
इसी को है लोगों ने अपना बैंक बनाया

जिसने किया सही उपयोग उसका काम बनाया
किया जिसने दुरुपयोग उसको बहुत सताया
रिश्ते नाते यारी दोस्ती सब छीन ले गया
सोचो इसके आने से क्या खोया क्या पाया

- रवींद्र कुमार शर्मा


कविता- नए साल का सूर्योदय



नए साल का सूर्योदय,
खुशियों के लिए उजाले हो॥

पल-पल खेल निराले हो,
आँखों में सपने पाले हो।
नए साल का सूर्योदय यह,
खुशियों के लिए उजाले हो॥

मानवता का संदेश फैलाते,
मस्जिद और शिवाले हो।
नीर प्रेम का भरा हो सब में,
ऐसे सब के प्याले हो॥

होली जैसे रंग हो बिखरे,
दीपों की बारात सजी हो,
अंधियारे का नाम ना हो,
सबके पास उजाले हो॥

हो श्रद्धा और विश्वास सभी में,
नैतिक मूल्य पाले हो।
संस्कृति का करे सब पूजन,
संस्कारों के रखवाले हो॥

चौराहें न लुटे अस्मत,
दु: शासन न फिर बढ़ पाए,
भूख, गरीबी, आतंक मिटे,
न देश में धंधे काले हो॥

सच्चाई को मिले आजादी,
लगे झूठ पर ताले हो।
तन को कपड़ा, सिर को साया,
सबके पास निवाले हो॥

दर्द किसी को छू न पाए,
न किसी आँख से आंसू आए,
झोंपडिय़ों के आंगन में भी,
खुशियों की फैली डाले हो॥

'जिए और जीने दे' सब
न चलते बरछी भाले हो।
हर दिल में हो भाईचारा
नाग न पलते काले हो॥

नगमों-सा हो जाए जीवन,
फूलों से भर जाए आंगन,
सुख ही सुख मिले सभी को,
एक दूजे को संभाले हो॥

                                                       -प्रियंका सौरभ


कहानी- प्यार की एक नाजुक उड़ान


यह एक ठंडी सर्दियों की दोपहर थी। आसमान में धुंध छाई हुई थी, और ठंडी हवा ने पेड़ों की शाखाओं को बेजान कर दिया था। मां घर के दरवाजे पर खड़ी थीं, धूप की उम्मीद में। तभी, एक नाजुक तितली, जो शायद ठंड से जूझ रही थी, हल्के-हल्के अपने पंख फड़फड़ाती हुई उनके सामने आ गई।

मां ने जैसे ही दरवाजा खोला, तितली झिझकते हुए अंदर उड़ आई। उसके पंख कांप रहे थे, और वह कमजोर लग रही थी। तितली सीधा मां के हाथ पर आकर बैठ गई। मां की हथेली की हल्की गर्मी ने तितली को जैसे नई ऊर्जा दी। मां ने उसे बहुत प्यार से देखा और धीरे से कहा, "तुम बहुत ठंडी हो गई हो, मेरी बच्ची।"





तितली जैसे उनकी बात समझ गई हो। उसने धीरे-धीरे अपने पंख फड़फड़ाए, मानो जवाब दे रही हो। मां ने तितली की तरफ देखते हुए उससे बातें करना शुरू कर दिया। उनके शब्दों में ऐसी ममता थी, जैसे वह तितली को सुकून दे रही हों। तितली भी हर बार अपने पंख हिला कर मां की बात का जवाब देती रही।

कुछ समय बाद, पिताजी घर लौटे। तितली ने मां की हथेली से उड़ान भरी और पिताजी के हाथ पर आकर बैठ गई। पिताजी ने मुस्कुराते हुए उसे देखा। उन्होंने भी उसे बड़े प्यार से अपनी हथेली पर रखा। कुछ पल के लिए तितली ने जैसे अपने नाजुक पंखों से उनकी उंगलियों को महसूस किया। फिर वह वापस मां के हाथ पर चली गई।

तितली की यह छोटी-सी उड़ान, मां और पिताजी के बीच, ऐसा लग रहा था जैसे वह अपनी नाजुकता और गर्मजोशी दोनों बांट रही हो। उसके पंखों की हलचल और उसकी मासूमियत ने घर के ठंडे माहौल में एक अद्भुत गर्मजोशी भर दी।  

लेकिन धीरे-धीरे तितली की ऊर्जा कमजोर पड़ने लगी। उसके पंख अब पहले की तरह नहीं हिल रहे थे। कुछ देर बाद वह फिर से पिताजी की हथेली पर आकर बैठ गई। इस बार, उसकी नाजुक काया स्थिर हो गई।

मां और पिताजी ने चुपचाप एक-दूसरे को देखा। उनकी आंखों में एक गहरी उदासी थी। तितली का छोटा-सा जीवन समाप्त हो चुका था। लेकिन वह अपनी आखिरी घड़ियों में जो गर्मी और सुकून ढूंढ़ने आई थी, वह उसे यहां मिल चुका था।

हमने उसे घर के बगीचे में एक छोटे से गड्ढे में दफना दिया। तितली के लिए यह हमारी छोटी-सी श्रद्धांजलि थी। वह आई थी, हमारे घर की ठंड को अपनी नाजुकता से पिघलाने। उसका जाना यह सिखा गया कि जीवन में कुछ पल कितने मूल्यवान होते हैं।


                                                          - विकास बिश्नोई, हिसार, हरियाणा