साहित्य चक्र

06 April 2025

कविता- प्रिय स्त्री




हे प्रिय स्त्री, ये तुम ने क्या कर डाला,

एक मां के लाल को क्यों तुमने,
सीमेंट के ड्रम में भर डाला।

एक बेटी से छीना, पिता का साया,
क्यों तुझे जरा सा तरस नहीं आया।

बहन से भाई छीन लिया,
क्यों ना तेरा सीना कंपकंपाया।

तुझे जरा तरस नहीं आया,
नारी के माथे पर क्यों तुमने,
कुलटा होने का कलंक लगाया।

एक मां के लाल को क्यों तुमने,
सीमेंट के ड्रम में भर डाला।

                                   - कंचन चौहान


कविता- अकथ गूँज




मेरी कविताएँ उन आँखों की नमी हैं,
जो बरसना तो चाहती थीं, पर बरस न सकीं।
वे उन होंठों की थरथराहट हैं,
जो कुछ कहना तो चाहती थीं, पर कह न सकीं।

वे दर्द हैं, जो किसी अंधेरी कोठरी में
सिसक-सिसक कर दम तोड़ते रहे,
वे वेदनाएँ हैं, जो चुप्पी की चादर ओढ़े
अंतःकरण में जलती रहीं।

मेरी कविताएँ उन स्त्रियों की पुकार हैं,
जो प्रभु के चरणों तक पहुँचना तो चाहती थीं,
पर जिनकी प्रार्थनाएँ शब्दों में बँध न सकीं।
वे अधूरी विनतियाँ हैं,
जो कंठ में ही घुटकर रह गईं।

ये हर वह आह हैं, जो कभी स्वर न पा सकी,
हर वह सपना हैं, जो आँखों में बुझ गया।
वो चाहतें, जो चातक की तरह बरसो आस लगाये रहीं ,
वे मौन का विद्रोह हैं, पीड़ा की भाषा हैं,
उनके अनकहे शब्दों का प्रकाश हैं।

अब ये कविताएँ उनके मन की प्रतिध्वनि बनकर
हवा में गूँजेंगी,
उनके मौन को एक नई आवाज़ देंगी,
और संसार को सुनाएँगी,
उनकी अनकही कहानी।


                                     - डॉ.  प्रतिभा गर्ग 

मेरी कविता



मेरी कविता आज की
कविता से कुछ अलग है।
मेरी कविता में शब्दों के
उलझे जाल नही है।
मेरी कविता शब्दों का गबन नही है।
न ही अधमरे विचारों का वमन हैं।
इसमें अंतर्मन में कोलाहल है।
इसमें उदास चूल्हे की चीख है।
मेरी कविता चेतना और
वेदना का अनुवाद है।
इसमें शब्दों की हकलाती
तुकबंदी नही है।
न ही तुकबंदी में
तुतलाती कविता है ,
इस कविता में शब्दों में
ढला अक्श है।
मेरे लिए कविता महसूस
की जाने वाली एक अनुभूति है।
कविताएं आजकल शब्दों
में सिमटा कोलाहल है।
कविता साहित्य की मंडी में
बिकती भावनाएं हैं।
मेरी कविता कलकल
बहती स्वप्नीली नदी है।
मेरे लिए कविता अनहदों
को गुनगुनाना है।
मेरे लिए कविता शब्दों
के संयोजन को बैठाना नही है।
मेरी कविता मात्राओं और छन्दों
में लिपटी नव बधु नही है।
बल्कि व्याकरणों के आचरणों
दूर शब्दों का आग्रह है।
मेरी कविता शब्दों की
अंतरध्वनियाँ हैं।
मेरी कविता मन की
आहट का आलेख है।
कविता किसी के लिए मन की अभ्यर्थना है।
किसी के लिए शब्दों की विवेचना है ।
कविता मेरे लिए अंतर्मन की अर्चना है।


                                            - विकास कुमार शुक्ल

अच्छी शिक्षा अच्छे संस्कार अपनाएं




हमारी सोने की चिड़िया लूटी
हमें अप्रैल फूल बना गए
चैत्र महीने से शुरू होता था जो देसी साल
उसे पहली जनवरी से मनाना सिखा गए

अपनी संस्कृति भूल कर हम
कैसे उनके झांसे में आ गए
सब भूल गए देशी महीनों के नाम
जनवरी से दिसंबर पर आ गए

हम भी पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंग गए
भूल गए सब कुछ अपना स्वदेशी
हिंदुस्तान छोड़ कर जा रहे पैसे के चक्कर में
अपनी भारतमाता को भूल कर बन गए विदेशी

बसंत का वैभव फैलता है चारों ओर
मधुमास के रूप में  प्रकृति करती है श्रृंगार
कोम्पले प्रस्फुटित होती हैं पेड़ पौधों पर
मानव शरीर में भी होता है नवजीवन का संचार

चैत्र मास की प्रतिपदा को सतयुग में ब्रह्मा जी द्वारा
किया गया था सृस्टि की रचना का श्रीगणेश
मानवता के कल्याण में लग गए थे 
फिर त्रिलोकीनाथ विष्णु और महेश

नव दीप जले मन में सबके खुशियों के 
अपनी संस्कृति को सहेजें उसको बचाएं
आओ हम सब मिलजुल कर स्वदेशी अपनाएं
चैत्र मास की प्रतिपदा को नव संवत्सर मनाएं

सनातन धर्म की रक्षा को हम सब आगे आएं
बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले अच्छे संस्कार अपनाएं
देवी मां का हाथ रहे सब के सिर पर
चैत्र मास से ही मनाएंगे नव वर्ष आओ यह कसम खाएं।


                                               - रवींद्र कुमार शर्मा


कविता- नारी का अंतर्मन





जी करता है जाने तुझको, 
कैसी थी तुम बचपन में।
चञ्चल थी या चुप चुप रहती 
सच कह क्या अंतर्मन में।

कितना मुश्किल होता होगा, 
तज कर सब कुछ आ जाना,
मन तो करता होगा देखें
उस घर का कोना कोना।
कैसा गुजरा बीता हर पल 
माँ पापा के आँगन में,
जी करता है जाने तुमको 
कैसी थी तुम बचपन में।

अब भी क्या उस घर में है सब 
कहे जो तेरी कहानी, 
तुझको जो प्रिय था सबसे  
बची है क्या वो निशानी?
ताल-तलैया गली चौराहे 
उस माटी के कण -कण में 
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में।

गुड्डे गुड़िये अरु सुन्दर कपड़े 
जिसे पाने की थी चाह 
नहीं देख अलमारी में वो 
क्या हृदय से  निकली  आह?
परत दर परत खोलूँ तुझको
क्या क्या दफन इस धड़कन में,
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में

 तुझको शीश नवाता हूँ सुन
 सखि तुमने बलिदान दिया
 हृदय पर रखकर पत्थर तूने 
मुझको तो मुस्कान दिया।
तुझको मैं क्या दूँगा प्रियवर
सब फीका है अर्पण में
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में।

नारी तुझको नमन करूँ मैं
इस घर को अपनाया है
हृदय में धर  पीर वो सारे
पर तुमने मुस्काया है।
छिपा रखा है तुमने आँसू
अपने नैनो के अञ्जन में
जी करता है जाने तुझको
तुम कैसी थी बचपन में।


                                     - सविता सिंह मीरा


कविता- दर्द की शिद्दत





खु़शबू जैसे लोग कहां मिलते हैं।

मुद्दतें गुज़रीं एक लम्हा नहीं गुज़रा।
चला गया वो रेत पर घरोंदेबनाकर।

वो बिछड़ा तो मैं किसी दर का न रहा।
चला गया मुझे ख़्वाब झूठे दिखा कर।

पतझड़  की तरह बना देते हैं मौसम ।
चले जाते हैं यह दरख़्तों को हिला कर।

दर्द की शिद्दत में छिपी होती है मुहब्बत।
दिल धड़कता रहता है उनकी अदा पर।

तुम कहीं भी रहो निगाहों में ही रहोगे।
हम  कैसे  जियें बोलो तुम को भुला कर।

ख़ुशबू जैसे लोग कहां मिलते हैं मुश्ताक़।
एक ख़त रखा है मैंने किताबों में छुपा कर।


                                              - डॉ. मुश्ताक़ अहमद  शाह

कविता- जीवन



पेड़ का पत्ता
जो कभी पेड़ के जीवन का आधार था
रंग बदलने लगा
पहले हरा था
अब पीला पड़ने लगा
सभी से अलग होने लगा
टहनी जो सहारा थी
उससे भी अलग होने लगा
एक दिन टहनी ने उसे झटक दिया
नीचे आ कर वह जमीन पर सड़ने लगा
उसी तरह यह आदमी भी
कभी पूरे परिवार का सहारा था
हराभरा जीवन पूरे परिवार का आधार था
यह भी रंग बदलने लगा।
सुंदर चिकनी काया कुरूप होने लगी
मीठी आवाज खरखराने लगी
शरीर का रंग बदलने लगा
तब सभी लोग कटने लगे
जो कभी दूसरों का सहारा था
अब दूसरों के सहारे हो गया
बेटे- बहू, पोते-पोती दूर भागने लगे
सभी उससे कटने लगे
फिर एक दिन सभी ने उसे झटक दिया
पेड से टूटे पत्ते की तरह सड़ने के लिए 
घर के एक कोने में डाल दिया।

                                 - वीरेंद्र बहादुर सिंह


कविता- उमड़ता सागर




आंखों में उतरती 
लफ़्जों में तैरती
कहानी नहीं 
अब हकीकत सी लगती
हां मैं कविता हूँ !

शब्दों को छूकर
रुह को टटोलती
सुकून पाकर 
मन की सहेली
हां मैं कविता हूँ !

मौन कल्पनाओं का स्वर
शब्दों का संयोजन
किरदारों का आकाश
तर्कों पर वार 
हां मैं कविता हूँ।

व्यथाओं का उमड़ता सागर
अमानवता की परछाई
सभी मौसम का रंग समेटे
जीव निर्जीव की जुबानी
हां मैं कविता हूँ।

बेताब कलम की ख़्वाहिश
स्याह सी स्याही में घुलकर
पन्नों पर जीवंत हो जाती
अलंकृत करती संस्कृति
हां मैं कविता हूँ।


                                   - अंशिता त्रिपाठी


कविता- सास कभी माँ न बन सकी




मेरी सास कभी मेरी माँ न बन सकी!
जिस बहू को बेटी बनाना था, 
उसकी कभी माँ न बन सकी! 
मेरी सास कभी मेरी माँ न बन सकी! 

बहू की आँखों में थे आँसू, 
वो लेकिन उसके आँसू न पढ़ सकी
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

सब नाते तोड़ कर आई वो, जिन रिश्तों के लिए...
वो उस लड़की के जज़्बात न समझ सकी
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

जो लड़ जाती हर किसी से 
छोटी-छोटी बात पर, अपनों के लिए
वो उसका झिड़कना न समझ सकी
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

एक अल्हड़, मनमौजी, मस्ती में रहने वाली ने,
हँसकर उनके घर की ज़िम्मेदारियाँ उठा लीं,
वो इस बात को भी न समझ सकी! 
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

बड़े-बड़े दुखों को मुस्कुरा कर सहने वाली,
वो जिस बात पर फफक कर रो पड़ी,
वो इस राज़ को न समझ सकी! 
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

वो ज़रूरत पर उनके बेटे की माँ भी बन गई..
पर अफ़सोस, वो उसकी ठीक से सास भी न बन सकी! 
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

वो बहू तो ले आई बेटी कहकर,
मगर वो अपनी बहू में बेटी न तलाश सकी
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

मेरी सास कभी मेरी माँ न बन सकी! 
मेरी सास कभी मेरी माँ न बन सकी! 


                                                  - अपर्णा सचान


कविता- दुनियां से...



वो प्यासा मर गया
कुंआ के मुंडेर पर,
सच में उसे कुएं से 
पानी निकलना
आता नहीं था,
बस बड़ी बाते बनाना 
उसकी फितरत थी,
वो पानी के हक
के लिये आवाज उठाता 
लड़ाइयां लड़ता 
संघर्ष करके
लहू बहाता,
मौत ने मौका दिया
कुआं पास में था
मगर वो बातूनी था
सो बात ही बात में
प्यास के चलते 
निपट गया दुनियां से..

                              - अभिषेक कुमार शर्मा 


कविता- जीवन पथ


फोटो सोर्स- गूगल


तुम अपने पथ को 
सुपथ करते जाओ 
जीवन में जय पराजय 
तो चली रहती हैँ।

तुम स्वयं के लिए 
मार्ग सुगम बनाते जाओ 
जीवन में कठिन 
डगर तो आते रहते हैं।

तुम हार कर भी 
ज़रा जीतना सीखो 
लोग दुनिया जीत कर भी 
स्वयं से हार जाते हैँ।

 तुम जीवन रथ पर
 चढ़कर दौड़ना सीखो 
 लोग तो पथ पर कांटे
 कहीं ना कहीं बिछाते रहेेंगे।


                                -डॉ. राजीव डोगरा


बलिदानी पर प्रश्न उठाने वाले




हम तो समझे थे की, तुम तो हिम्मत वाले हो
वीरों के बलिदानों की, इज्जत कर ने वाले हो
कहो फिर भी कैसे, कैसे खून नही खोला तेरा
संसद मे बाबर की तुलना, राणा से करने वाले हो।। 

तुम भी कुर्सी के लालच में धृतराष्ट् बनने वाले हो
स्व. राणा सांगा का क्या चिर हरण करने वाले हो
अस्सी गाव लेकर जो मुगलो को चने चबवाता है। 
संसद मे उसी बलिदानी पर प्रश्न उठाने वाले हो।। 

कुछ देर के खातिर ही तुम रौद्र रूप दिखलाते
जीभ कटवा देते या संसद से तो बाहर भगाते, 
किस बात के खातिर तुम अब तक मौन धरे हो, 
एक बार फिर से देश को गोहदरा याद दिलाते, 


                             - अनिल चौबीसा


जानिए कौन है बिहार की पद्म श्री किसान चाची!


बिहार के मुजफ्फरपुर क्षेत्र के एक ग्रामीण किसान परिवार में जन्मीं राजकुमारी अपनी मेहनत और लगन से आज पूरे देश में किसान चाची के नाम से जानी जाती हैं। राजकुमारी जी का जन्म 21 अगस्त 1953 को मुजफ्फरपुर में हुआ था। ग्रामीण माहौल, पुरानी परम्पराओं और महिला होने के कारण से राजकुमारी देवी जी की शिक्षा नहीं हो पाई। पुराने जमाने में ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा का अभाव होता था। सामाजिक जागरूकता ना होने के कारण महिलाएँ घरों के काम तक ही सीमित रहती थीं। राजकुमारी जी का विवाह बहुत ही कम उम्र में अवधेश कुमार चौधरी के साथ आनंदपुर गांव में कर दिया गया। इनकी तीन संतानें हैं, जिनमें दो बेटी रंजू, संजू और एक पुत्र अमरेंद्र कुमार शामिल हैं।





संघर्षमय जीवन और कृषि की शुरुआत

शादी के बाद राजकुमारी जी ने देखा कि ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और महिलाओं की आर्थिक निर्भरता उनके पति या परिवार पर है। महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के लिए काफी संघर्ष और परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इन सब चीजों ने राजकुमारी जी को के. वि. के सरैया मुजफ्फरपुर, डाॅ० राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, बिहार से आधुनिक खेती के तरीकों को सीखने के लिए प्रेरित किया।

शुरुआत में राजकुमारी जी को परिवार और गांव वालों का भारी विरोध भी झेलना पड़ा, मगर उन्होंने हार नहीं मानी। साइकिल से गांव-गांव जाकर महिलाओं को खेती और स्वरोजगार के बारे में जागरूक एवं शिक्षित किया। इस दौरान गांव वालों ने राजकुमारी जी का खूब मजाक उड़ाया था, लेकिन उन्होंने लोगों की परवाह नहीं की। जैविक खेती के नए तरीकों से उच्च उत्पादन वाली फसलें, फल, सब्जियाँ उगाकर यह साबित कर दिया कि महिलाएँ चाहे तो कुछ भी कर सकती हैं और कृषि महिलाओं के लिए आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने का सबसे आसान व लाभदायक मार्ग है।

राजकुमारी जी द्वारा महिलाओं को सशक्त बनाने हेतु

महिलाओं को खेती खाद्य प्रसंस्करण और स्वयं सहायता समूहों से जोड़ा
पारम्परिक अनाजों के बजाय नगदी फसल उगाने के प्रेरित किया
खेती से प्राप्त उत्पादों का प्रसंस्करण कर अतिरिक्त आय अर्जित करना
स्वयं सहायता समूह बनाकर अपने उत्पादों को बाजार में बेचना

 राजकुमारी जी का अचार व्यवसाय

इन्होंने अपना अचार का व्यवसाय ‘किसान चाची का अचार’ नाम से शुरु किया। वर्तमान में राजकुमारी जी लगभग 25 प्रकार के अचार और जैम बनानी हैं और स्थानीय बाजारों व महानगरों में अपना उत्पादन बेचती हैं। इसके अलावा राजकुमारी जी अपने प्रोडेक्ट को ऑनलाइन भी सेल करती हैं। इनके इस व्यवसाय से सैकड़ों महिलाओं को रोजगार प्राप्त हुआ है। 

सम्मान और पुरस्कार

कृषि में नवाचार और ग्रामीण महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में सहायता हेतु बिहार सरकार द्वारा- किसान श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
कृषि क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा देश का चौथा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया है।

राजकुमारी जी की यह कहानी सिर्फ उनकी सफलता की कहानी नहीं है बल्कि पूरे समाज के बदलाव की कहानी है। पद्मश्री किसान चाची की यह कहानी हम सभी के लिए प्ररेणादायी है। यह कहानी ग्रामीण महिलाओं को आत्मनिर्भर और जागरूक होने के लिए प्रेरित करती है।


                                                      - अनुरोध त्रिपाठी


20 March 2025

विश्व गौरैया दिवस- 2025 स्पेशल पंक्तियाँ



 ओ री गौरेया

छोड़ सूनी अटरिया घर-घर की,
सूने आँगन और बगिया इधर की,
उदास अमरुद और अमिया तड़पती,
चली गई कहाँ तू, ओ री गौरेया,
कुछ तो बता दे अपना पता तू।

चहकता नहीं कोई आँगन में सवेरे,
फुदकता नहीं कोई  यहाँ अब बिन तेरे ,
आता नहीं खिड़की से कोई कमरे में मेरे,
चली गई कहाँ तू ,ओ री  गौरेया,
कुछ तो बता दे अपना पता तू।

आता नहीं कोई चोरी-चोरी डरते-डरते,
चुगता नहीं दाना कोई  उटक -पटक के,
भरता नहीं छोटी उडारी पंख फड़क के,
चली गई कहाँ तू ,ओ री गौरेया,
कुछ तो बता दे अपना पता तू।

ओझल हुई बिन किये कोई गिला-शिकवा,
छोटी है तू पर है बड़ी तेरी महानता,
विकास के नशे में चूर कर गया बड़ी खता,
शोभा अपने आँगन की बैठा खुद ही गवा,
चली गई कहाँ तू, ओ री गौरेया,
कुछ तो बता दे अपना पता तू।

खुली  है खिड़की मेरे कमरे की,
बिखरा हैं दाना, भरी है डिबरी पानी की,
अमिया और अमरुद ने भी शाखाएं है फैला दी,
गिन रही है अटरिया घड़ियाँ इंतज़ार की,
अब तो आजा तू, ओ री गौरेया,
माफ़ मुझे कर दे और आजा यहाँ तू।

                                         - धरम चंद धीमान 

*****

चूँ चूँ की पुकार

हवेलियों की छाँव में,
चहकी थी जो नन्ही चिरैया,
अब न आँगन, न वे वृक्ष रहे,
कैसे गूँजे चूँ चूँ की मैया?

खुले आँगन में बचपन बीता,
जहाँ चहकती थी मन की कली,
अब बँध गए फ़्लैटों की सींव में,
खिड़कियों में है बस एक छली।

अम्मा से माँगी रोटी की लोई,
बनाई छोटी-छोटी गोलियाँ,
लालचाते, बुलाते गौरैया को,
चहक उठतीं वे चिरैया बालियाँ।

हम भी संग उनके चहक उठते,
मन हुलसित, हो जाती अठखेलियाँ,
अब न जाने वे पंखुरी पखेरू,
कहाँ खो गईं नन्हीं सहेलियाँ।

पेड़ों पर बाँधो परिंडे जल के,
फैलाओ नेह का आह्वान पुनः,
तभी प्रकृति और पक्षी का राग,
बसेगा नव पीढ़ी में यथार्थ बन।

आओ मिलकर बचाएँ उनको,
चूँ चूँ की पुकार का मान करें,
हरीतिमा और नीड़ बसाएँ,
गौरैया का फिर सम्मान करें।

                                       - सुरेश तनेजा अलवर

*****


घर के कोने में रहती
कभी भी किसी को तंग नहीं करती
मेरी प्रजाति हो रही है विलुप्त
हे मानव तेरे कारनामे है इसमें संलिप्त। 
मुझे बचाने का चल पड़ा है अभियान
मैं रही हूँ शायद वातावरण की शान। 

                                     - विनोद वर्मा 

*****

मैं नन्ही - सी जान , 
 ऊंँची है मेरी उड़ान।

भला मैं कैसे ? 
थक के हार जाऊंँ , 
मेरी भी बने पहचान। 

मेरी  भी चाह है! 
नन्हें नन्हें कदमों से चलती जाऊंँ , 
पंख पसारे  गगन में उड़ती जाऊंँ। 

माना कठिन है दौर , 
 कहीं नही है मेरा ठौर,

रुकेंगे वहीं पे मेरे कदम, 
जहांँ में होगा मेरा स्थान । 

मैं नन्ही - सी जान , 
चेहरे पर है मुस्कान। 


                               - चेतना सिंह

*****


आज के शहरों में गौरैया कहाँ है?
उसकी चहचहाहट अब सुनाई नहीं देती है।
इमारतें ऊंची हो गईं, पेड़ कट गए,
गौरैया का घर अब नहीं रहा।

आज के बच्चे मोबाइल में खो गए हैं,
गौरैया की चहचहाहट को नहीं सुनते हैं।
हमें गौरैया को बचाना होगा,
वरना वह हमेशा के लिए खो जाएगी।

आओ गौरैया को बचाएं, उसकी रक्षा करें,
हमारे पर्यावरण को सुरक्षित रखें।

                                                 - बीना सेमवाल

*****


नन्ही गौरैया 

छोटी-सी चंचल गौरैया, आंगन में इठलाए,
टहनी-टहनी फुदक-फुदककर, मधुर राग यह गाए।

कभी सुबह की पहली किरण संग, स्नेह लुटाने आती,
तो कभी शाम की धूप सुनहरी में, गुनगुन गीत सुनाती।

माँ की गोदी-सी लगती थी, उसके नन्हे घोंसले की छांव,
पर अब खोजें इसे नज़रें, सूने पड़े हैं बाग़-बग़ीचे और गांव।

क्यों उजाड़ा उसका आशियाना, क्यों छीनी उसकी बहार ?
आओ संकल्प लें मिलकर, लौटाएं उसका संसार!

धरती की इस मासूम कली को, फिर से प्यार लुटाएँ,
हर घर-आंगन, हर उपवन में, गौरैया को बसाएं !

                                         - डॉ. सारिका ठाकुर "जगृति" 


*****


ए नन्ही सी गौरैया ,
ची ची करके शोर मचाए।
कभी इधर से कभी उधर से,
फुदक फुदक घर-घर जाए।

जब आ जाती है मुंडेर पर,
सबको अपने संग बुलाए।
टहनी टहनी पर जाकर के,
मधुर स्वर में गीत सुनाए।

सबसे पहले खुद जगाती,
और सबको ची ची करके जगाती।
कितना मन इसका चंचल है,
 एक जगह ए कभी न रुकती।

                                           - रामदेवी करौठिया

*****


बैठी गौरैया जाने क्या सोचे,
जरा सुस्ता लूं पल भर को या,
नापना चाहे अंबर को।
मन ही मन सोचे गौरैया,
मन ही मन विचार करे।
भले घूम लूं दुनिया सारी,
नहीं भूलूंगी अपने घर को।
दाना पानी चुग कर जब मैं,
फिर लौट कर घर को आऊंगी,
कंक्रीट के जंगल में क्या,
घर को सुरक्षित पाऊंगी।
इसी ग़म से उदास गौरैया,
बैठी यही विचार करे,
मोह माया में बैठी रहे या,
ऊंचे नभ में उड़ान भरे।

                                         - कंचन चौहान

*****

आंगन की गौरैया

छोटी सी चिड़ियाँ ,नाम गौरैया, 
कितनी ही प्यारी लागे रें। 
सुबह सवेरे आंगन में आकर,
मुझे जगाती गीत सुनाती रें।
 चीं-चीं करती दाना चुंगती ,
फिर पेड़ों पर उड़ जाती,
कितनी ही अपनी सी लागे रें।

                                        - अनुरोध त्रिपाठी 

*****


कितना अटूट विश्वास है मेरा और तुम्हारा ऐ गौरैया, 
मेरे घरौंदे में इतने सालों से तुम्हारा घोंसला बनाना, 
मानो हम दोनों का कोई अटूट रिश्ता है ऐ चिरैया। 


                                         - रचना चंदेल 'माही' 

*****


सुबह सुबह आंगन में करती थी चीं चीं
फुदक फुदक कर मिलकर खाती थी दाना
मानव की तरक्की की मार में डूब गई
अब तो गौरेया को देखे हो गया ज़माना

                                              - रवींद्र कुमार शर्मा

*****

सुबह सुबह जब मुझको दाना देती,
घर की औरतें तब मुझको बहुत भाती,
मैं भी चूं चूं करके सबको सुहाती,
बच्चे मेरे पीछे पीछे दौड़ते,
मैं भी भाग भाग के उनका मनोरंजन करती,
मत करो टेक्नोलॉजी को इतना भी एडवांस,
मिट जाए  बची खुची मेरी पहचान।

                                    - डॉक्टर जय अनजान

*****

आंखों का सुकून, नन्हीं सी मुस्कान हूं मैं।
कलरव करती अनार की उस शाख की शान हूं मैं।
हैसियत छोटी सी पर,छोटी सी ख्वाहिशें मेरी,
घरौंदा देखो मेरा, कारीगर भी बेमिसाल हूं मैं।

                                     -कुणाल

*****