जब-जब इंसान ने अपने अहम से
इंसानियत को मारा है
तब-तब उसने महाकाल को ललकारा है
सिर्फ एक आँधी से निस्तब्ध सब
श्मशान और शहर में फर्क़ अब कहाँ है?
अब क्यों घबराता इंसान?
अब क्यों रोता इंसान?
कमज़ोरों की नज़रों में डर को देख हंसता
आज उस डर से क्यों डरता इंसान?
जैसे कोई कहता आँखों में उंगली डाल...
तुम कुछ नहीं
प्रकृति के वक्ष पर
एक तुच्छ प्राणी हो मात्र
एक छोटी सी आहुति से निःशब्द हो गए
मनमानी, विलासी, विजयी बन
तुमने जिस तेज को ललकारा है
उस चुनौती को स्वीकार
महाकाल ने एक पलटवार ही तो किया है।
-आँखी दास
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