साहित्य चक्र

19 November 2024

शरीफों से कौन मिलता है



इस ज़माने में शरीफों से कौन है मिलता
टूटे दिल के टुकड़ों को कौन है सिलता
पड़ोसी को सुखी देख कर दुखी रहते हैं सारे
दूसरे को सुखी देख चैन कहाँ है मिलता 

कैसे गिराएं लगे रहते हैं इसी उधेड़ बुन में
बिना किसी का अनिष्ट किये है चैन कहां मिलता
बरसात आने पर ही बरसती हैं बूंदें
बिना मौसम के है फूल है कहां खिलता

शहर में चर्चे होते है बदमाशों के
सत्ता के गलियारों में अपनी चमक है दिखाते
ठाठ से रहते हैं कोई उनका नहीं कुछ बिगाड़ पाता
शरीफ तो गुमनामी में ही मर हैं जाते

हद से ज़्यादा शरीफ होना भी है एक गुनाह
शराफत का सब हैं फायदा उठा जाते 
अपना उल्लू सीधा करके नज़र नहीं हैं आते
शरीफ के कंधे पर रखकर बंदूक हैं चलाते


                                  - रवींद्र कुमार शर्मा


तोहफ़ा रिश्वत का





दिल की गहराई में 
जब कोई उतर जाता है।

सच कहता हूँ मैं जीने का 
अंदाज़ बदल जाता है।

मेरे सरकार मेरे हमनवा 
कुछ नवाजिश तो करो।

सर्द मौसम है ये और तन्हाई
ऐसे हालात में तो हर कोई घर
अपने वापस ही चला आता है। 

मैं मुसवविर मेरे साथ ये ही
तो बड़ी उलझन है। 

तस्वीर कोई भी बनाऊँ, 
अक्स तेरा ही उभर आता है।
 
हर शख्स यहाँ  ईमाँ की 
तिजारत पर तुला है। 

जहाँ देखिए वहाँ पर 'मुश्ताक़' 
 तोहफ़ा रिश्वत का ही
 नज़र आता है। 

                                                 - डॉ. मुश्ताक़ अहमद 


युवा साहित्यकार डॉ. पूनम जी की 11 कविताएँ




ये दिन गुज़र रहे हैं
या हम गुज़र रहे हैं
आधी है हर कहानी
किरदार मर रहे हैं
ख़ुशबू के बंध खोले
बादे-सबा ने आकर
फ़िर इक नई सुबह को
संग ला रहा दिवाकर
समझाये रोज़ हमको
डूबे उबर रहे हैं
ये दिन गुज़र रहे हैं
या हम गुज़र रहे हैं
हद तोड़ आये हैं हम
आवारगी की सारी
क्या दश्त क्या चमन है
हर सू महक हमारी
तेरे दर से दूर होकर
बस दर-ब-दर रहे हैं
ये दिन गुज़र रहे हैं
या हम गुज़र रहे हैं
छायी है ज़ेह्नो-दिल पे
इक गर्दे-बेक़रारी
जी चाहता था वैसी
गुज़री नहीं हमारी
हर सू महकने वाले
ख़ुद में बिखर रहे हैं
ये दिन गुज़र रहे हैं
या हम गुज़र रहे हैं
मंज़र तमाम जैसे
आँखों को छल चुके हैं
जो ख़्वाब मैंने देखे
वो अब बदल चुके है
आलम है अब ये अपने
होने से डर रहे हैं
ये दिन गुज़र रहे हैं...

*****

दिल पर कोई तारी हो तो !
कहने में दुश्वारी हो तो !
जिसको दुनिया माने कोई
उसमें दुनियादारी हो तो !
तेरी जानिब मैं आ जाऊँ
उसका पलड़ा भारी हो तो
गर्व समझते हो जिसको तुम
वो मेरी ख़ुद्दारी हो तो !
अपने हाल को रोने वाले
उसकी भी लाचारी हो तो !
बाहर आंसू देख रहे हो
रक़्स दिलों में जारी हो तो !
उसकी भी इज़्ज़त की जाये
दुश्मन अगर मेयारी हो तो

*****


जिनकी क़िस्मत में तन्हाई होती है
रास उन्हें दुनिया कब आई होती है
ख़ामोशी को बहला कर चुप रखते हैं
सच कह जाये तो रुसवाई होती है
दस्तक देता रहता है बाहर कोई
भीतर हमने ख़ाक उड़ाई होती है
आये दिन यूँ ज़ख़्म उधेड़ो मत अपने
मुश्किल से इनकी तुरपाई होती है
जिसकी आँखें सबसे पार उतर जायें
उसकी आँखों में बीनाई होती है
वैसे सब हम्माम में नंगे हैं लेकिन
सबने अपनी बात बनाई होती है
वक़्त बुरा हो तो किस से उम्मीद रखें
सांझ ढ़ले कब संग परछाई होती है

*****

मुसल्सल टूटते रहिये
उसी को सोचते रहिये
करेंगे अनसुना कब तक
बराबर बोलते रहिये
हवा की चाल बदलेगी
परों को खोलते रहिये
वो जाके आ भी सकता है
घड़ी भर को रुके रहिये
मुहब्बत इक बला है सो
बला को टालते रहिये
ख़ुदी से राब्ता रखिये
ज़माने से बचे रहिये
सभी का हाल कैसा है
सभी से पूछते रहिये
किसी का आसरा बनिये
किसी के आसरे रहिये
ये खोटा वक़्त है लेकिन
मज़ा तब है' खरे रहिये
बहुत आसान है जीना
फसादों से परे रहिये
इनायत हो न हो लेकिन
इबादत में लगे रहिये

*****

संवेदन के ताने-बाने तोड़ेगी
अंतहीन ये दौड़ कहाँ पर छोड़ेगी?
सुख की छलनाओं ने सबको लूटा है
पीड़ा-पगा निमंत्रण पीछे छूटा है
बाहर कवच अहं का धारे फिरते हैं
भीतर से हर कोई टूटा-टूटा है
एकाकी पथ पर ही हमको मोड़ेगी
अंतहीन ये दौड़ कहाँ पर छोड़ेगी?
अपनी-अपनी सोच रहे हैं सब देखो
लोलुपता के नए-नए करतब देखो
भूल गए हैं भाषा त्याग-तपस्या की
दौर सुहाना फिर आएगा कब देखो
कपट-शिला यूँ ही नेह-गागर फोड़ेगी
अंतहीन ये दौड़ कहाँ पर छोड़ेगी?
हो सकता है तेज़ लहर में बह जाएँ
आदर्शों की प्रतिमाऐं भी ढ़ह जाएँ
बीच भँवर से बचकर आना मुश्किल है
ऐसा ना हो हम पछताते रह जाएँ
टूटे प्रतिबंधों को विधि फिर जोड़ेगी
अंतहीन ये दौड़ कहाँ पर छोड़ेगी?

***** 



आहुति देकर नित निद्रा की
मन की व्यथा चुनी है मैंने
नीम रतजगों में तारों से
गोपन कथा सुनी है मैंने
लंबी रातों का सदियों तक
चलने वाला इंतज़ार हूँ
नींद नहीं भेजी आँखों में
मैं ख़्वाबों की गुनहगार हूँ
कुछ साँसों का क़र्ज़ मिला है
गिन-गिन कर लौटाना भी है
कठिन सफ़र है रस्ता बोझिल
लेकिन वापस जाना भी है
कुछ जीवन गिरवी है मुझ पर
कुछ जीवन पर मैं उधार हूँ
नींद नहीं भेजी आँखों में
मैं ख़्वाबों की गुनहगार हूँ
दुःख को जीना,दुःख को पीना
मेरी प्रतिपल की क्रीड़ा है
मेरी जानिब आने वाली
ख़ुशियों के मन में व्रीड़ा है
नख से शिख तक देखो मुझको
मैं दुःख का इक शाहकार हूँ
नींद नहीं भेजी आँखों में
मैं ख़्वाबों की गुनहगार हूँ
मेरी इन बोझिल आँखों ने
अरमानों के लाशे ढ़ोये
इक ज़ाहिर मुस्कान सजाई
बिन आँसू के नैना रोये
जीवन के इस चित्रपटल का
मैं इक बेरंग इश्तिहार हूँ
नींद नहीं भेजी आँखों में
मैं ख़्वाबों की गुनहगार हूँ

*****

तौबा क्या अफ़्साना निकला
बादल भी परवाना निकला
आँसू साथ बहाने बैठा
वो मुझ सा दीवाना निकला
बाहर जिसमें ख़ूब रवानी
भीतर से वीराना निकला
जिस ने रस्ता काटा मेरा
इक हमदर्द पुराना निकला
दस्तक में तो उम्मीदें थीं
वो दर ही अनजाना निकला
भोला-भाला दिखने वाला
अस्ल में ख़ूब सयाना निकला
हमने परख कर ग़लती कर दी
हर कोई बेगाना निकला

*****

भावना का ज्वार-भाटा
आज विस्मित हो रहा है
शब्द सब अवकाश पर हैं
मौन मुखरित हो रहा है
वेदना लेकर विदाई
हो गयी विगलित हृदय से
आज हमने मुक्ति पा ली
चाहना के क्षीण भय से
आँसुओं का अर्घ्य देकर
मन समर्पित हो रहा है
शब्द सब अवकाश पर हैं
मौन मुखरित हो रहा है
ये समय का फेर कैसा
थम गया है शोर सारा
आँधियाँ भी थक चुकीं हैं
अब लगाकर ज़ोर सारा
गीत कोई अनसुना
हर ओर चर्चित हो रहा है
शब्द सब अवकाश पर हैं
मौन मुखरित हो रहा है
तोड़कर तटबंध सारे
मार्ग ढूँढ़ा चेतना ने
भर लिया ठहराव ख़ुद में
आज इस विचलितमना ने
इक नये आयाम से फ़िर
चित्त परिचित हो रहा है
शब्द सब अवकाश पर हैं
मौन मुखरित हो रहा है

*****


जब उकता जाओ
चमकीली दुनिया की दिखावट से
उजले चेहरों की झूठी मुस्कुराहट से
हर सवाल पर झूठ मूठ
बताये गये अच्छे हाल से
इर्द गिर्द बुने हुए
मतलब के जाल से
कथनी-करनी के अंतर से
चापलूसी के मंतर से
फिज़ूल की दौड़ से
आपस की होड़ से
नफ़रत के चलन से
लोगों की जलन से
रिश्तों के वार से
वक़्त की मार से
तब हमारे पास आना
हम वो सरफिरे हैं
जो दूसरों का दर्द
अपने दिल में सजाते हैं
जो नफ़रत के दौर में भी
मुहब्बत का गीत गाते हैं
जो उसूलों पे आँच आने नहीं देते
जो मायूसी का बादल छाने नहीं देते
जो सादगी का चलन बनाये हुए हैं
जो ज़मीन पर क़दम जमाये हुए हैं
पीड़ा के बदले जो मुस्कान देते हैं
दूसरों की भावनाओं को जो मान देते हैं
आना हमारे पास
हम यहीं मिलेंगे
एक उजली भोर थामे हुए
इंसानियत की डोर थामे हुए

*****


सूरज के मुख पर कालिख है
बहक गयी है रानाई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई
एक तरफ़ तो स्वाभिमान है
एक तरफ़ समझौते हैं
दिशाहीन युग के हाथों की
कठपुतली बन रोते हैं
इधर कुँआ है गर जायें तो
उधर खुली गहरी खाई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई
बौने हैं आदर्श भी जिनके
वो हमको समझाते हैं
जो ख़ुद हैं गुमराह यहाँ वो
सबको राह दिखाते हैं
अंधे बतलाते हैं हमको
क्या होती है बीनाई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई
उनकी ख़ातिर यश-गाथाऐं
हम दामन के दाग़ सही
उनको सुख की सेज मुबारक
हमको ग़म की आग सही
झूठों को सारी अय्याशी
सच्चों की शामत आई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई
पनप चुका है आज छलावा
आपस के संबंधों में
मर्यादा का भार वहें वो
बचा नहीं दम कंधों में
हल्के अब इंसान हो गये
भारी हो रही परछाई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई
शब्द महज़ आक्रोश ओढ़कर
काग़ज़ पर सो जाते हैं
समाधान तक आते-आते
मुद्दे ही खो जाते हैं
भटक चुके हैं आज नियंता
भस्म हो गयी दानाई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई

*****

जब सारी दुनिया रूठी हो
हर एक दुआ जब झूठी हो
जब मैं तन्हा सी रह जाऊँ
ढूँढूँ तो किसी को ना पाऊँ
जब जीवन में अँधियारा हो
उम्मीद न कोई सहारा हो
जब रस्ता मेरा साथ ना दे
जब कोई मुझको हाथ ना दे
जब मन का आँगन सूना हो
जिस वक़्त मेरा दुःख दूना हो
मैं जैसी हूँ वैसी ना रहूँ
इक सोच में गुम क्या किस से कहूँ
जब सुख का सूरज ढ़ल जाये
जब हर इक रंग बदल जाये
जब हर सू ग़म के साये हों
जब अपने लोग पराये हों
जब आँख में आँसू भर जायें
जब सारे अरमाँ मर जायें
जब धड़कन धीमी हो जाये
हर आस कहीं पर खो जाये
जब नाउम्मीदी बढ़ जाये
जब सर पर सूरज चढ़ जाये
जब मुश्किल मुझको घेरे हो
उस वक़्त कहो तुम मेरे हो

*****

- डॉ.पूनम यादव




माता-पिता की जीवन शैली




घर में चाहे कितने ही लोग क्यों ना हो,
अगर मां ना दिखाई तो घर खाली खाली लगता है।

दम तोड़ देती है मां-बाप
की ममता जब बच्चे कहते हैं
की तुमने किया क्या हमारे लिए हमारे लिए

ठंडी रोटी अक्सर उनके नसीब में होती हैं
जो अपनों के लिए कमाई करके देर से घर लौटते हैं

जब एक रोटी के चार टुकड़े हो
और खाने वाले पांच
तब मुझे भूख नहीं हैं ऐसा कहने वाली सिर्फ मां होती हैं।

न जाने कितना दुख कामता है एक पिता
औलाद की खुशी के खरीदने के लिए
फिर भी इस औलाद के महल में
एक कोना नहीं मिलता मां-बाप को ठहरने के लिए

मेरी मां आज भी अनपढ़ है,
रोटी एक मांगता हूं वो दो लाकर देती है।

आज रोटी के पीछे भागता हूं,
तो याद आती है मुझे रोटी खिलाने के लिए
मां मेरे पीछे भागती थी।

मत गुस्सा करना अपनी मां पे यारों
वो मां की दुआ ही जो हर मुसीबत से बचाती है।



- अनूप सिंह


18 November 2024

मनसा- एक चलती फिरती दुकान



देख आज की उन्नति,
मिल जाती जिसमें हर चीज़ जरूरत की,
बस भेज एक सन्देश,
आ जाता सब-कुछ आपके घर द्वार पर ही।

याद आती है मुझे,
अपने बचपन में देखी एक भोली सूरत की,
बिन पाए ही कोई सन्देश,
पूरी करती थी मांग घर -घर जाकर जो हर सामान की,
ऐसी थी एक बेचारी -मनसा,
चलती-फिरती किसी दुकान सी।

चेहरे पर झुर्रियां ,छोटी-छोटी सी अखियाँ,
छोटा कद और हल्की चाल,
पीठ पर बांधे भारी गठरी,
होंठों पर होती थी मीठी बाणी पसरी,
चेहरे पर थी फैली होती,
एक असीमित मुस्कान सी,
ऐसी थी एक बेचारी- मनसा,
चलती- फिरती किसी दुकान सी।

घर-घर जाती ,आवाज़ लगाती,
हर औरत को उसके नाम से बुलाती,
अपने हर एक सामान की खूबी,
एक ही सांस में थी बोल जाती,
मजाल कोई औरत उसके 
विज्ञापनी शब्द जाल से बच पाती,
देखते ही देखते इर्द-गिर्द उसके भीड़ थी लग जाती,
सब कुछ थी जानती, रहती थी बन अनजान सी,
ऐसी थी एक बेचारी- मनसा,
चलती-फिरती किसी दुकान सी।

बच्चे छेड़ते ,पर गुस्सा न करती,
मीठी गोलियां उनको बाँट,
मुंह बंद थी उनका करती,
राखी ,रंग ,चूड़ी या कंगन,
लाली,सुर्खी ,इत्र पाउडर या क्रीम,
सब मसाले भी होते,
छोटी –मोटी दवाई भी देती,
थी थोड़ी वो बैध हकीम,
शान होता था तरतीब से रखा हर डिब्बा,
उसकी उस गठरी रुपी दुकान की,
ऐसी थी एक बेचारी –मनसा,
चलती-फिरती किसी दुकान सी।

टोपी ,शाल और स्वेटर लाती,
जरूरत किसकी क्या है,
बिन बोले ही थी समझ जाती,
थी अनोखी प्रारूपकार बो,
अपने उस व्यापारी संसार की,
बात ही बात में विज्ञापन भी थी दे जाती,
आगे आने वाले अपने हर सामान की,
ऐसी थी एक बेचारी- मनसा,
चलती-फिरती किसी दुकान सी।

बहुत दिन फिर हुए, 
न दिखी झलकी मनसा की,
बात हमारे तक भी पहुंची,
कि हो गई है बो अब प्यारी इश्वर की,
बहुत याद हमें भी आई कुछ दिन तक,
मनसा की कम, 
ज्यादा उन मीठी मुफ्त गोलियों की,
भूल गये सब फिर ये,
कि थी बो भी प्राणी इस जहान की,
देख आज की ऑनलाइन व्यवस्था,
आ गई याद मुझे उस आत्मा महान की,
ऐसी थी एक बेचारी– मनसा,
चलती-फिरती किसी दुकान सी।
चलती-फिरती किसी दुकान सी।


                                       - धर्म चंद धीमान