साहित्य चक्र

21 December 2024

कविता- जिंदगी





खामोश लबों की दास्तां खामोशी से छुपा रखी है,
खामोशी पर हज़ारों गमों की ज़िल्द चढा रखी है,
जिससे भी निभाई थी सबसे ज्यादा रस्मे वफा,
उसने दुनिया किसी और के वास्ते सज़ा रखी है।

गम नहीं हमने गमों के साथ जीना सीख लिया है,
हज़ारो गमों को भी अब छुपाना सीख लिया है,
शायद मज़बूरी होगी तेरी या तेरी तंग दिली थी,
हमने अब भी कांटों से दोस्ती बरकरार रखी है।

तेरे दामन को थामने की हमने भी ठान रखी है,
हमने भी तेरे कदमों संग कदमताल मिला रखी है,
तू जितनी भी खेल आँख मिचौली हमारे साथ, 
तू जिधऱ भी जाए तेरे पदचिन्हों पर नज़र रखी है।

सितमगर है तू,सितम ढाने की कसम खा रखी है,
पर मैने भी हद से गुजरने की कसम खा रखी है,
सता ले चाहे जिंदगी जितना भी अपनी आदत से,
मैने भी तुझे जीतने की कसम खा रखी है।


                                                                   - राज कुमार कौंडल 


दुनिया की नजरों से देखा उन्होंने





क्यों की मैं अब दुनिया के रिती और 
रिवाजों से नहीं चलता हूं!
क्यों की जों दिखता हैं.  
उसपर यकीन नहीं करता हूं ।

दुनिया के नजरों से देखा उन्होंने
क्यों की मैं भावों के भव सागर में डूब जाता हूं 
और इल्म के साथ जीता हूं.
क्यों की मैं यथार्थ को पीता हूं।

दुनिया के नजरों से देखा उन्होंने 
क्यों की पथीक पावनी सा एक पथीक था मैं, 
जो आपने ही वेग से मेरू कों मार, कर,
पार खुद क्षीर ,बन धीर - गंभीर सी बन जाती हैं।

दुनिया की नजरों से देखा उन्होंने 
क्यों की अवाम को कम बेजूंबान कों अधिक सुनता हूं मैं!
क्यों की मैं इंसान के करीब कम आसमां सुरज, 
चांद के अधिक करीब  रहता था मैं।
दुनिया के नजरों से देखा उन्होंने
क्यों की मैं चातक सा जीता था! और 
स्वाति का रसपान करता था  !
दुनिया की नजरों से देखा उन्होंने।


                                                     - विवेक यादव 


वो सर्दी की धूप में बैठना


आहा! क्या याद दिला दिया आपने। वो सर्दी की धूप में बैठना। स्मृतियों का पिटारा खुल गया। मेरा शिमला और हमारे बरामदे, आॅंगन और छत की धूप। हमारे लिए धूप किसी वरदान से कम नहीं हुआ करती थी। जिस घर में हम रहते थे, प्राचीन निर्माण शैली पर था। बहुत बड़े-बड़े कमरे और बाहर बहुत बड़ा बरामदा। बरामदे के आगे ढलान लेती छत।





और घर से बाहर बहुत बड़ा आॅंगन, जहाॅं हम फूल और सब्ज़ियाॅं भी उगाते थे, कपड़े भी सुखाते थे। इस तरह हमारे पास धूप सेंकने के लिए तीन जगह हुआ करती थीं। प्रातः उदित होते सूर्य के साथ अस्ताचल की ओर जाते सूर्य देव हमारे घर के चारों ओर घूमते ही रहते थे और हम सब भी सूरज के साथ-साथ अपने बैठने की जगहों पर घूमते रहते थे। शिमला में ग्रीष्म और शीत ऋतु दोनों ही मौसम में धूप का आनन्द लिया जाता था।

फ़ोल्डिंग चारपाईयाॅं, दरियाॅं और पटड़े हमारे लिए सारा दिन धूप में घूमते रहते थे। घर के अन्दर का रोटी-पानी का काम समाप्त हुआ और पूरा परिवार आॅंगन में धूप में। कोई पायताने पर, कोई सिरहाने कोई नीचे तो कोई पैर लटकाकर बैठ जाता था। अचार डालना, पापड़ बनाना, सेंवियाॅं बनाना, मटर छीलना, सब्ज़ियाॅं काटना, लकड़ी-कोयला तोड़ना और न जाने कितने ही काम धूप में बैठकर गपशप में ही निपट जाते थे। नहाकर बाल सुखाने के लिए धूप में आना ज़रूरी था। थाली में खाना डालकर बाहर ले आते और धूप में ही बैठकर खाते थे। सबसे बड़ा काम होता था स्वेटर बुनना। हर किसी के हाथ में उन-सिलाईयाॅं ज़रूर रहा करती थीं। और थोड़ी-थोड़ी देर बाद चाय बनकर आती रहती और हम पियक्कड़ बने रहते।

जब बर्फ़ गिरती और उसके बाद धूप निकलती तो बेलचा लेकर बर्फ़ हटाते और चारपाई के लायक जगह बनाकर उस पर बैठ जाते, उन सर्द हवाओं और ठण्डी धूप का अपना ही आनन्द होता था। दो-दो, तीन-तीन स्वेटर पहने, टोपियाॅं लगाये मफ़लर लपेटे और धूप सेंकते। बहुत याद आती है शिमला तेरी।


- कविता सूद


कविता- आंसू मन में...






सोचा है किस कारण सारे सागर खारे होते हैं ?
सच है सागर सारे आंसू मन में धारे होते हैं।

नदिया की अविरल धाराएं मन की व्यथा सुनाती हैं
ठहर-ठहर हर डगर, घाट पर गोपन कथा सुनाती हैं।

गाती हैं मन की पीड़ाएँ हिय के घाव दिखाती हैं
कभी-कभी घर की बातों को चौबारों तक लाती हैं।

नदिया के दुख हरने को वे बाँह पसारे होते हैं
सच है सागर सारे आंसू मन में धारे होते हैं।

जिनके आँसू सीपी में ढलकर मोती बन जाते हैं
परिवारों की ख़ुशियाँ लाने बाजारों तक आते हैं।

पीकर दुख के घूँट सदा ही मुस्कानों को गाते हैं
दिल पर पत्थर रखने वाले ख़ुद पत्थर कहलाते हैं।

पीड़ा का संसार समेटे मन के हारे होते हैं
सच है सागर सारे आंसू मन में धारे होते हैं।

सूरज का प्रतिबिंब बना जो उस चंदा की छाया है
जिसने उनको जैसा देखा उसने वैसा पाया है।

सागर का खारापन यूँ भी तटबंधों तक आया है
हर सागर में आँसू वाला सागर स्वयं समाया है।

इस कारण मीठी नादिया को इतने प्यारे होते हैं
सच है सागर सारे आंसू मन में धारे होते हैं।

- श्रद्धा शौर्य


कविता- चोर दरवाजा





बहुत दिनों से वो इस रास्ते से गुजरता भी नहीं
फिर उस रास्ते पर पाऊं ही मेरा उठता भी नहीं।

उन्हें क्या पता दो बिछड़े फिर कब मिलते भी हैं
जैसे‌ उजड़े सहरा में कोई फूल खिलता भी नहीं।

उनको पुकारा तो था उन्होंने कभी सुना ही नही
वो फिर कहेंगे सब से मुझको बुलाता भी‌ नहीं।

चाहता तो हूं उन्हीं के दर पे जाकर मिल ही लूं
उनके घर जाने का कोई चोर दरवाजा भी नहीं।

- हनीफ़ सिंधी