साहित्य चक्र

06 April 2025

कविता- प्रिय स्त्री




हे प्रिय स्त्री, ये तुम ने क्या कर डाला,

एक मां के लाल को क्यों तुमने,
सीमेंट के ड्रम में भर डाला।

एक बेटी से छीना, पिता का साया,
क्यों तुझे जरा सा तरस नहीं आया।

बहन से भाई छीन लिया,
क्यों ना तेरा सीना कंपकंपाया।

तुझे जरा तरस नहीं आया,
नारी के माथे पर क्यों तुमने,
कुलटा होने का कलंक लगाया।

एक मां के लाल को क्यों तुमने,
सीमेंट के ड्रम में भर डाला।

                                   - कंचन चौहान


कविता- अकथ गूँज




मेरी कविताएँ उन आँखों की नमी हैं,
जो बरसना तो चाहती थीं, पर बरस न सकीं।
वे उन होंठों की थरथराहट हैं,
जो कुछ कहना तो चाहती थीं, पर कह न सकीं।

वे दर्द हैं, जो किसी अंधेरी कोठरी में
सिसक-सिसक कर दम तोड़ते रहे,
वे वेदनाएँ हैं, जो चुप्पी की चादर ओढ़े
अंतःकरण में जलती रहीं।

मेरी कविताएँ उन स्त्रियों की पुकार हैं,
जो प्रभु के चरणों तक पहुँचना तो चाहती थीं,
पर जिनकी प्रार्थनाएँ शब्दों में बँध न सकीं।
वे अधूरी विनतियाँ हैं,
जो कंठ में ही घुटकर रह गईं।

ये हर वह आह हैं, जो कभी स्वर न पा सकी,
हर वह सपना हैं, जो आँखों में बुझ गया।
वो चाहतें, जो चातक की तरह बरसो आस लगाये रहीं ,
वे मौन का विद्रोह हैं, पीड़ा की भाषा हैं,
उनके अनकहे शब्दों का प्रकाश हैं।

अब ये कविताएँ उनके मन की प्रतिध्वनि बनकर
हवा में गूँजेंगी,
उनके मौन को एक नई आवाज़ देंगी,
और संसार को सुनाएँगी,
उनकी अनकही कहानी।


                                     - डॉ.  प्रतिभा गर्ग 

मेरी कविता



मेरी कविता आज की
कविता से कुछ अलग है।
मेरी कविता में शब्दों के
उलझे जाल नही है।
मेरी कविता शब्दों का गबन नही है।
न ही अधमरे विचारों का वमन हैं।
इसमें अंतर्मन में कोलाहल है।
इसमें उदास चूल्हे की चीख है।
मेरी कविता चेतना और
वेदना का अनुवाद है।
इसमें शब्दों की हकलाती
तुकबंदी नही है।
न ही तुकबंदी में
तुतलाती कविता है ,
इस कविता में शब्दों में
ढला अक्श है।
मेरे लिए कविता महसूस
की जाने वाली एक अनुभूति है।
कविताएं आजकल शब्दों
में सिमटा कोलाहल है।
कविता साहित्य की मंडी में
बिकती भावनाएं हैं।
मेरी कविता कलकल
बहती स्वप्नीली नदी है।
मेरे लिए कविता अनहदों
को गुनगुनाना है।
मेरे लिए कविता शब्दों
के संयोजन को बैठाना नही है।
मेरी कविता मात्राओं और छन्दों
में लिपटी नव बधु नही है।
बल्कि व्याकरणों के आचरणों
दूर शब्दों का आग्रह है।
मेरी कविता शब्दों की
अंतरध्वनियाँ हैं।
मेरी कविता मन की
आहट का आलेख है।
कविता किसी के लिए मन की अभ्यर्थना है।
किसी के लिए शब्दों की विवेचना है ।
कविता मेरे लिए अंतर्मन की अर्चना है।


                                            - विकास कुमार शुक्ल

अच्छी शिक्षा अच्छे संस्कार अपनाएं




हमारी सोने की चिड़िया लूटी
हमें अप्रैल फूल बना गए
चैत्र महीने से शुरू होता था जो देसी साल
उसे पहली जनवरी से मनाना सिखा गए

अपनी संस्कृति भूल कर हम
कैसे उनके झांसे में आ गए
सब भूल गए देशी महीनों के नाम
जनवरी से दिसंबर पर आ गए

हम भी पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंग गए
भूल गए सब कुछ अपना स्वदेशी
हिंदुस्तान छोड़ कर जा रहे पैसे के चक्कर में
अपनी भारतमाता को भूल कर बन गए विदेशी

बसंत का वैभव फैलता है चारों ओर
मधुमास के रूप में  प्रकृति करती है श्रृंगार
कोम्पले प्रस्फुटित होती हैं पेड़ पौधों पर
मानव शरीर में भी होता है नवजीवन का संचार

चैत्र मास की प्रतिपदा को सतयुग में ब्रह्मा जी द्वारा
किया गया था सृस्टि की रचना का श्रीगणेश
मानवता के कल्याण में लग गए थे 
फिर त्रिलोकीनाथ विष्णु और महेश

नव दीप जले मन में सबके खुशियों के 
अपनी संस्कृति को सहेजें उसको बचाएं
आओ हम सब मिलजुल कर स्वदेशी अपनाएं
चैत्र मास की प्रतिपदा को नव संवत्सर मनाएं

सनातन धर्म की रक्षा को हम सब आगे आएं
बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले अच्छे संस्कार अपनाएं
देवी मां का हाथ रहे सब के सिर पर
चैत्र मास से ही मनाएंगे नव वर्ष आओ यह कसम खाएं।


                                               - रवींद्र कुमार शर्मा


कविता- नारी का अंतर्मन





जी करता है जाने तुझको, 
कैसी थी तुम बचपन में।
चञ्चल थी या चुप चुप रहती 
सच कह क्या अंतर्मन में।

कितना मुश्किल होता होगा, 
तज कर सब कुछ आ जाना,
मन तो करता होगा देखें
उस घर का कोना कोना।
कैसा गुजरा बीता हर पल 
माँ पापा के आँगन में,
जी करता है जाने तुमको 
कैसी थी तुम बचपन में।

अब भी क्या उस घर में है सब 
कहे जो तेरी कहानी, 
तुझको जो प्रिय था सबसे  
बची है क्या वो निशानी?
ताल-तलैया गली चौराहे 
उस माटी के कण -कण में 
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में।

गुड्डे गुड़िये अरु सुन्दर कपड़े 
जिसे पाने की थी चाह 
नहीं देख अलमारी में वो 
क्या हृदय से  निकली  आह?
परत दर परत खोलूँ तुझको
क्या क्या दफन इस धड़कन में,
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में

 तुझको शीश नवाता हूँ सुन
 सखि तुमने बलिदान दिया
 हृदय पर रखकर पत्थर तूने 
मुझको तो मुस्कान दिया।
तुझको मैं क्या दूँगा प्रियवर
सब फीका है अर्पण में
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में।

नारी तुझको नमन करूँ मैं
इस घर को अपनाया है
हृदय में धर  पीर वो सारे
पर तुमने मुस्काया है।
छिपा रखा है तुमने आँसू
अपने नैनो के अञ्जन में
जी करता है जाने तुझको
तुम कैसी थी बचपन में।


                                     - सविता सिंह मीरा