देख आज की उन्नति,
मिल जाती जिसमें हर चीज़ जरूरत की,
बस भेज एक सन्देश,
आ जाता सब-कुछ आपके घर द्वार पर ही।
याद आती है मुझे,
अपने बचपन में देखी एक भोली सूरत की,
बिन पाए ही कोई सन्देश,
पूरी करती थी मांग घर -घर जाकर जो हर सामान की,
ऐसी थी एक बेचारी -मनसा,
चलती-फिरती किसी दुकान सी।
चेहरे पर झुर्रियां ,छोटी-छोटी सी अखियाँ,
छोटा कद और हल्की चाल,
पीठ पर बांधे भारी गठरी,
होंठों पर होती थी मीठी बाणी पसरी,
चेहरे पर थी फैली होती,
एक असीमित मुस्कान सी,
ऐसी थी एक बेचारी- मनसा,
चलती- फिरती किसी दुकान सी।
घर-घर जाती ,आवाज़ लगाती,
हर औरत को उसके नाम से बुलाती,
अपने हर एक सामान की खूबी,
एक ही सांस में थी बोल जाती,
मजाल कोई औरत उसके
विज्ञापनी शब्द जाल से बच पाती,
देखते ही देखते इर्द-गिर्द उसके भीड़ थी लग जाती,
सब कुछ थी जानती, रहती थी बन अनजान सी,
ऐसी थी एक बेचारी- मनसा,
चलती-फिरती किसी दुकान सी।
बच्चे छेड़ते ,पर गुस्सा न करती,
मीठी गोलियां उनको बाँट,
मुंह बंद थी उनका करती,
राखी ,रंग ,चूड़ी या कंगन,
लाली,सुर्खी ,इत्र पाउडर या क्रीम,
सब मसाले भी होते,
छोटी –मोटी दवाई भी देती,
थी थोड़ी वो बैध हकीम,
शान होता था तरतीब से रखा हर डिब्बा,
उसकी उस गठरी रुपी दुकान की,
ऐसी थी एक बेचारी –मनसा,
चलती-फिरती किसी दुकान सी।
टोपी ,शाल और स्वेटर लाती,
जरूरत किसकी क्या है,
बिन बोले ही थी समझ जाती,
थी अनोखी प्रारूपकार बो,
अपने उस व्यापारी संसार की,
बात ही बात में विज्ञापन भी थी दे जाती,
आगे आने वाले अपने हर सामान की,
ऐसी थी एक बेचारी- मनसा,
चलती-फिरती किसी दुकान सी।
बहुत दिन फिर हुए,
न दिखी झलकी मनसा की,
बात हमारे तक भी पहुंची,
कि हो गई है बो अब प्यारी इश्वर की,
बहुत याद हमें भी आई कुछ दिन तक,
मनसा की कम,
ज्यादा उन मीठी मुफ्त गोलियों की,
भूल गये सब फिर ये,
कि थी बो भी प्राणी इस जहान की,
देख आज की ऑनलाइन व्यवस्था,
आ गई याद मुझे उस आत्मा महान की,
ऐसी थी एक बेचारी– मनसा,
चलती-फिरती किसी दुकान सी।
चलती-फिरती किसी दुकान सी।
- धर्म चंद धीमान