साहित्य चक्र

14 October 2024

पितृसत्ता पर सीधा प्रहार करती फिल्म- 'स्त्री-2'


शैतान का सबसे बड़ा छल यह था कि उसने दुनिया को यह यकीन दिला दिया कि वह मौजूद नहीं है।” – 'द यूज़ुअल सस्पेक्ट्स' की यह प्रसिद्ध पंक्ति ‘स्त्री 2’ का एक उपयुक्त परिचय है, एक ऐसी हॉरर-कॉमेडी जिसने न केवल बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाई है, बल्कि दर्शकों को सोचने पर भी मजबूर कर दिया है। रोमांचक दृश्यों के पीछे, ‘स्त्री 2’ एक गहरे सामाजिक संदेश को उजागर करती है, जो पितृसत्ता की उन जड़बंदी हुई संरचनाओं पर प्रकाश डालती है जो महिलाओं की स्वायत्तता को कमजोर करती हैं।



फिल्म की शुरुआत एक शांत, सुदूर कस्बे से होती है, जो पहली नज़र में शांतिपूर्ण दिखता है, लेकिन जल्द ही एक भयावह सच्चाई सामने आती है। एक रहस्यमय राक्षस इस कस्बे में निवास करता है, जो विशेष रूप से उन युवतियों को शिकार बनाता है जो पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को चुनौती देना चाहती हैं। यह राक्षस समाज की उन दमनकारी ताकतों का प्रतीक बन जाता है जो उन महिलाओं को निशाना बनाती हैं जो सपने देखने, स्वतंत्र रूप से सोचने और परंपरा की बेड़ियों को तोड़ने का साहस रखती हैं। यह भयावह रूपक दर्शाता है कि कैसे पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं की व्यक्तित्व और आकांक्षाओं को "निगल" जाता है और उनके अस्तित्व को डर से नियंत्रित करने का प्रयास करता है।

फिल्म के केंद्र में राजकुमार राव का किरदार है, जो एक महिला दर्जी की भूमिका निभाता है—पारंपरिक पितृसत्तात्मक समाज में एक असामान्य पेशा। उनका किरदार उन रूढ़ियों को चुनौती देता है जो लिंग भूमिकाओं के बारे में बनी हुई हैं और आधुनिक रिश्तों में बदलते हुए समीकरणों पर जोर देता है। श्रध्दा कपूर का किरदार भी महिलाओं की दोहरीता का प्रतीक है—एक ओर कोमलता और दूसरी ओर शक्ति को संतुलित करती हुई, वह पितृसत्तात्मक समाज में अपना रास्ता बनाती है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, यह स्पष्ट हो जाता है कि युवा महिलाओं के गायब होने का कारण उनके द्वारा पारंपरिक अपेक्षाओं को नकारना है। जो महिलाएं स्वतंत्रता चाहती हैं और परंपरागत मानदंडों को चुनौती देती हैं, वे एक प्रतिशोधी शक्ति का शिकार बन जाती हैं। यह राक्षस समाज की उस क्रूर प्रतिक्रिया का प्रतीक है जो महिला स्वायत्तता को नियंत्रित करने के लिए हिंसक उपाय अपनाता है। पुरुष किरदार, जो सामान्य से लेकर निर्दयी आक्रांताओं तक के रूप में दिखाए गए हैं, इस बात का प्रतिनिधित्व करते हैं कि कैसे गहरे स्तर तक जड़ें जमाई हुई पुरुषवादी मानसिकता विकृत आचरणों जैसे हिंसा और उत्पीड़न को सामान्यीकृत कर देती है।

‘स्त्री 2’ समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से पितृसत्ता के उस रूप को उजागर करती है जो महिलाओं की स्वतंत्रता को दबाने के लिए हिंसा को औचित्य प्रदान करता है। फिल्म यह भी दर्शाती है कि जब राजकुमार राव का किरदार समाज में बदलाव लाने और महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की कोशिश करता है, तो उसे प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। यह उस गहरी जड़ जमाई पितृसत्तात्मक सोच का प्रतीक है जो यथास्थिति को चुनौती देने वालों को अस्वीकार कर देती है। 


राक्षस, जो कई सिरों के साथ दिखाया गया है, एक शक्तिशाली रूपक बनता है—नकारात्मकता नकारात्मकता को आकर्षित करती है और विकृत व्यवहार समूह में फैलता है। यह विशेष रूप से उन दृश्यों में स्पष्ट होता है, जहां राजकुमार के राक्षस को हराने के प्रयासों के बावजूद, और भी राक्षस प्रकट होते हैं, जो यह दर्शाता है कि कैसे विषाक्त मानसिकता और व्यवहार सामूहिक रूप से फैलते हैं, जैसे एक गिरोह मानसिकता। हालांकि, फिल्म केवल समस्या को दर्शाने तक सीमित नहीं है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, यह उम्मीद की एक झलक पेश करती है। 


फिल्म का चरमोत्कर्ष 'अर्धनारीश्वर' की अवधारणा को प्रस्तुत करता है, जो प्राचीन हिंदू विचार है कि पुरुष और महिला ऊर्जा का समन्वय होना चाहिए। यह रूपक दर्शाता है कि सच्ची सामंजस्य और समानता पुरुष और महिला के बीच परस्पर सम्मान में निहित है। यह दृष्टि पितृसत्तात्मक परंपराओं को चुनौती देती है, एक ऐसे समाज का आह्वान करती है जहां दोनों लिंगों का समान रूप से सम्मान किया जाता है और उन्हें समान अवसर प्राप्त होते हैं। 

जबकि ‘स्त्री 2’ पितृसत्तात्मक हिंसा की आलोचना करती है, यह सामाजिक पाखंड का भी मजाक उड़ाती है। कस्बा, बाहरी रूप से शांत और स्वागतशील दिखता है, लेकिन इसके अंदर गहरे बैठे पूर्वाग्रह और हानिकारक रूढ़ियाँ छिपी हैं। फिल्म में हास्य और व्यंग्य का प्रयोग इन पाखंडों को उजागर करता है, जो हमें हंसाते हुए भी सोचने पर मजबूर करता है।

अंत में, ‘स्त्री 2’ केवल एक हॉरर-कॉमेडी नहीं है; यह सामाजिक परिवर्तन के लिए एक शक्तिशाली उत्प्रेरक है। फिल्म ने मनोरंजन और एक गहरे संदेश को बखूबी मिश्रित किया है, हमें लैंगिक असमानता की कठोर वास्तविकताओं का सामना करने के लिए चुनौती देती है। यह हमें एक ऐसे भविष्य की ओर प्रेरित करती है, जहां पुरुष और महिला समानता के साथ खड़े हों, परस्पर सम्मान और साझी मानवता के साथ। यह याद दिलाती है कि लैंगिक समानता के लिए लड़ाई अभी भी जारी है, लेकिन यह लड़ाई लड़ने योग्य है।

आइए, हम अपने मतभेदों को स्वीकार करें, निर्णय और पूर्वाग्रह की बेड़ियों को तोड़ें, और उन मानदंडों को चुनौती दें जो हमें विभाजित करते हैं। सच्ची लैंगिक समानता का अर्थ केवल व्यक्तिगत अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं है; यह एक दूसरे की स्वतंत्रता और गरिमा के लिए सामूहिक जिम्मेदारी का आह्वान है। साथ मिलकर, हम एक ऐसी दुनिया बना सकते हैं जहां हर आवाज सुनी जाए, और हर कहानी का महत्व हो।

स्त्री 2’ एक मनोरंजक फिल्म के रूप में शुरू होती है, लेकिन इसका अंत एक गहरे सामाजिक संदेश के साथ होता है, जो दर्शकों को जागरूकता की दिशा में प्रेरित करता है।


                                      - डॉ. पूजा दीक्षित जोशी, शिक्षिका व समाजशास्त्री

15 September 2024

मृत्यु की गोद में मेरी सुहानी नींद



जन्म से आज तक 60 वर्ष यानि 21900 दिन गुजर गए जिसमें कई बार ज़िंदगी से खफा होकर मैं जीते जी कई बार मरा हूँ। दुनिया में कोई भी हो अधिकांश के साथ जीवन छल करता है ओर वे अपने में पूरी तरह टूट कर खुद को मरा हुआ मानते है, पर वे मरते नहीं। कारण, मृत्यु तो एक बार ही आती है ओर खूब झूमती हुई, इठलाती हुई सामने खड़ी अट्टहास करती है, जब मृत्यु आती है तो घर के आँगन में खड़ी होकर हँस हँस कर सिर्फ एक बार ताना कसती है कि जल्द से कुछ पलों में अपने घर परिवार के नातेदारों –रिस्तेदारों से ममता की जंजीरों को तोड़ मेरे साथ चलने को तैयार हो जाओ।





मृत्यु का आना यानि एक नागिन के दांतों के बीच साँसों की डोर का होना है ओर मरने वाला मृत्यु को देख अपने होशोहवाश खो देता है, वह किसी से भी अपनी व्यथा नही कह पाता ओर अपने दिल की ज्वाला में धधकता हुआ शांत हो जाता है, सदा के लिए एक तस्वीर बनकर दीवाल पर टँगने के लिए, ये जो 60 वर्ष की मैं बात कर रहा हूँ , वह कम या ज्यादा हो सकता है जिसमें मौत के आने के बाद शरीर सबसे बंधनमुक्त हो जाता है। मेरे अपने जीवन के 60 वर्ष सुख दुख में, स्नेह बांटते प्यार को तरसते, छोटे बड़े भाइयों सहित परिवारजनों का तिरष्कार, अपमान ओर अन्याय की चक्की में पिसते हुये, उन्हे रूठने मनाने में गुजार दिये पर वे रिश्तो को तोड़कर अपनी मस्ती में रहे। मैं जानता हूँ की वे तीस साल यानि आधी उम्र के 10950 दिन अकड़ में जिये, पर उनकी अकड़ की गांठ खुलती ही नहीं की अचानक मृत्यु ने मुझे अपनी गोद की शरण दे दी। बरसों बाद परम शांति महसूस हुई जब मौत की सुहानी गोद में मुझे गहरी मीठी नींद में सुला दिया अब ये आंखे सदा सदा के लिए बंद हो गई ओर पलक झपकते ही दुनिया के सारे नाते रिश्तो के बंधनो के मुक्ति मिल गई ।

इधर मेरे मरने की खबर जैसे ही लोगों के पास पहुंची कुछ जागरूक समाजसेवी सक्रिय हो गए ओर कब प्राणान्त हुये, क्या कर रहे थे, क्या बीमार थे, आखिरी शब्द क्या थे उनका अंतिम संस्कार कब होगों किस घाट पर होगा आदि जानकारी लेकर उसे सोसल मीडिया पर मेरे फोटो के साथ पोस्ट करना शुरू कर दिया की बड़े दुख की बात है हमारे भाई पत्रकार आत्माराम यादव हमारे बीच नही रहे उनका अंतिम संस्कार फला घाट पर इतने बजे किया जाएगा ओर लोग सामान्य घटना की तरह हमदर्दी जताकर मृतक आत्मा की शांति हेतु संवेदना व्यक्त कर दुख जाहीर करेंगे। जिनके मन में मेरे प्रति भावनात्मक जुड़ाव होगा वह सीधा शव को कंधा देने घर पहुचेगा जिसकी साक्षी यह देह नहीं किन्तु मेरे शरीर के प्रति मोह न छोड़ पाने वाली सूक्ष्म आत्मा अवश्य दर्शक दीर्घा में खड़ी होगी जो घर से शव ले जाने के साथ आखिरी समय तक की तमाशवीन होगी।

मेरी सूक्ष्म आत्मा मेरे जन्म से मौत तक की साक्षी रही है वह एक एक घटना को देखकर मेरा मूल्याकन मुझसे कराएगी ओर मेरे सामने हर घटनाक्रम जीवित हो उठेगा कि मैं अपने इस जीवन में अपनी भुजाओ की पूरी ताकत लगाने के बाद, जी भरकर समाचार,लेख, व्यंग्य आदि लिखते हुये इतना नही कमा सका की बच्चों को घर बनवा सकूँ, मैंने बच्चो को पढ़ाने लिखाने में अपने सपने न्योछावर किए, बच्चों के सपनों के आगे में हमेशा बौना ही रहा। अब जबकि मौत की गोद में पहुचा तब मुझे बहुत ख्याल आए कि अब तक मुझसे मेरे भाइयो से प्रेम करने में कहाँ चूक हुई जबकि मेरा हृदय सदैव उनके लिए पूर्ण समर्पित रह उनके साथ अपने सुख दुख बाटने के लिए तड़फता रहा था। मेरे बेटे नादान है, वे मेरे विषय में जो धारणा रखे मैं उन्हे दोष नहीं दूंगा , पर बेटी के लिए सिर्फ पढ़ाई के अलावा कुछ न कर पाने की मेरे दिल में गहरी वेदना रही है, अगर में अपने बच्चों को आसमान कि ऊंचाइयों तक पहुचाकर अपरिमित धन दे सकता तो शायद वे मुझे योग्य पिता मान लेते, न माने तो भी वे मेरे दिल के टुकड़े ही रहेंगे, हा बेटी जब अपने लक्ष्य पर पहुँच जाये तो वह मेरी मेलआईडी के पोस्ट किए सारे लेखों को पुस्तक का स्वरूप देने के अलावा लिखी चारों पुस्तकों को सभी तक पहुंचाने हेतु बेटों से ज्यादा सजग है। परिवार में ओर भी सदस्य है, विशेषकर बड़े घर में बड़ी भाभी, बहू सीता जैसी परीक्षा किसी ने नही दी, जो सक्षम है वे रिश्तों से बहुत दूर है, उनके लिए उनका अपना संसार ही सब कुछ है, बाकी उनके अपने उनके लिए कुछ नहीं। अरे ये क्या मृत्यु कि गोद में भी मोह ममता का बुखार आ गया जबकि यह शरीर मृत्यु के हवाले हो जाने से मृत हो गया है ओर अब लोग जल्द इस शरीर को यहा से हटाने कि तैयारी में जुटने लग गए।

घर के अंतपुर में रोने कि आवाज तेज हो गई है, सभी मेरे मृत शरीर से उमड़ पड़ रहे है ओर ताने दे रहे है कि आखिर हमे भी साथ ले जाते, किसके भरोसे छोड़ जा रहे हो, हम आपके बिना जी के क्या करेंगे, हमे भी साथ ले चलो। हे भगवान कितने निर्दयी हो, हमे क्यो नहीं ले गए, इनकी जगह हमे ले जाते तो अच्छा होता.... बगैरह बगैरह । ये जितने भी मेरे शव पर रोने वाले चीख चीख कर दिखावा कर प्रेम दिखा रहे है वे सब दिखावटी है मेरे घर परिवार के सदस्य जो मोह दिखा रहे है, उनका मोह मैं जानता हूँ इसलिए अब इनके द्वारा मेरे शव को श्मशान ले जाने कि तैयारी हो गई है । मैं अपने शव के इर्द गिर्द देख रहा हूँ, जिस घर में जिस परिवार के साथ मैंने कई साल गुजारे वह घर अब मेरा नहीं रहा, जिस बस्ती में मेरा घर है उस बस्ती से मैं उजड़ गया,यानि अब बह बस्ती मेरे लिए घर नहीं रही थी, मुझे मौत अपने साथ ले गई ...जहा मौत हो वह बस्ती क्यो कहलाती है , यह मेरी आत्मा सोच रही थी । जहा सभी कि शान बराबर हो वह शमशान भूमि जहा से कभी किसी के लौटा कर नही ले जाते वह अब मेरी हो गई है जहा पर चिता की मृदुल गोद मुझे चिर-विश्राम देगी। अब जबकि आप सभी जान गए कि मेरा अवसान हो गया तब एक प्रश्न उनसे जरूर करूंगा कि मैं जब जीवित रहा तब कभी भी आपने मेरी कुशल नही पूछी, जिस भाई भतीजों को चाहा वे घर से घर लगा होने के बाद घर के सामने से ऐसे बिना बोले निकलते थे मानों मैंने उनका सर्वस्य छिन लिया है। मैंने अपने जीवन काल में जिसे कभी जाना नहीं पहचाना नहीं, जिससे मेरी दोस्ती नहीं वह भी तब मेरे विषय में इस प्रकार दुष्प्रचार करता रहा जैसे सच में मैंने उसके घर का चीर हरण किया हो, आखिर मुझे सदमार्ग पर चलने के लिए जीते जी यह संत्रास क्यो झेलना पड़ा। यह अलग बात है कि इसी प्रकार के लोग मृत्यु के पश्चात मेरा सम्मान करने कि प्रतिस्पर्धा करेंगे, जिसे मैं देख नहीं पाऊँगा। मेरी आंखे मुँदने के बाद मेरी मृत्यु पर मुझे अंतिम क्रिया हेतु आज शाम से पहले ही ले जाने का निमंत्रण भी दिया जा चुका है अर्थात पंचायती हंका करा दिया गया है जिससे लोग घर पर जुटने लगे है। जो भी मेरी मौत की खबर सुनता,कहता विश्वास ही नहीं हो रहा कि आखिर अचानक यह कैसे हो गया।

मरने से पहले मैं एक सामान्य आम आदमी रहा हूँ जिसके प्राणों में क्या चलता रहा इसे कोई समझ नहीं सका मेरे मन को मेरे हृदय को जब मेरे भाई नहीं समझ सके तो फिर दुनियादारी के किसी ओर रिश्ते से क्या उम्मीद करता। मैंने सभी के गंभीर से गंभीर कष्टों को झेला है, जब जीवन भर गलतिया करके मेरे भाई गल्तियो को स्वीकारने की ताकत नही जुटा सके तब उन्हे एहसास कराने हेतु में दिल की गहराइओ तक तड़फकर क्षमा कर देता, मेरी इन कमजोरिया को मेरे भाइयों ने अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया । कई रातों में जागते हुये लेखन चिंतन मनन ओर साधना करते मुझे लगा जैसे विधाता मेरे विचारों में इस प्रलय का सामना करने का बल दे रहा है ओर मैं अपने भाइयो के लिए किसी बल की ढाल से सुरक्षा नही चाहता था। मैंने माता ओर पिता का एकांतवास देखा है, जिन्होने अपने खून पसीने से सींचा वे बेटे उनके नहीं हो सके तो मैं उनके सामने किस खेत की मुली था, आश्चर्य होता है की मेरे इन भाइयों को क्या चोदह भुवन का राज्य मिल गया था या तीनों लोकों के वे राजा हो गए थे जिनके समक्ष माँ ओर पिता तिरस्कृत हो जाये ओर उनकी ममता का मूल्य उनसे ज़िंदगी भर की दूरी बनाकर दे ओर अपना स्वार्थ निकालने के लिए ही उन्हे याद किया जाय ये सारी बाते मेरे आत्मा के सामने आ जा रही थी जब घर से मेरे शव को शमशानघाट लेकर जाया जा रहा था ओर मैं जीते जी राम नाम सत्य है, यह सत्य से दूर रह किन्तु मेरे शव को सुनाने के लिए लोग रास्ते भर कहते जा रहे थे, सब शमशान घाट का वह चबूतरा आ गया जहा मेरे शव को एक मिनिट रोककर , मृत्युकर चुकाकर कंधे बदले जाकर चिता पर लिटाया गया।

युगों से निरंतर यही चला आ रहा है कि जिसकी आयु पूरी हो जाये उसे मरना है, यही कारण है कि इस धरती पर कोई भी वीर महावीर, अवतार तक नहीं रुक सका ओर पानी के बुलबुला के तरह मिटकर वह चला गया तब यदि मैं मर गया तो कोई अजूबा नहीं हुआ। जग में जिसने जन्म लिया है उसे मरना पड़ा है,आज मैं मर गया तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है आखिर कभी तो मरना था। जगत के लोगों ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया या मैंने अपने प्राणों में उठी उमंगों को कुचलकर क्षितिज कि ऊंचाइयों तक क्यो नही पहुँच सका यह मेरे प्रारब्ध के किसी श्राप या बददुआ के कारण हो सकता है, वरना इस जीवन में सभी से वरदान ही मिला था जो कुछ कमाए बिना लोगो से मांगचुंगकर हंसी खुसी जीवन निकल गया। हाँ अब शमशान में मेरी चिता को अग्नि में देने के बाद मेरी कपालक्रिया तक बैठकर या जब भी मेरी याद आए तब मेरी कथनी करनी से लेकर मेरी उपेक्षा, मान, निंदा स्तुति का मुरब्बा तैयार कर अपने-अपने हिसाब से मसाला मिलाकर अपनी श्वासों के कारागार में मुझे बंदी बना सकते हो या मेरे जीवन भर का आँसुओ पर पत्थर बन मुझ अभागे को कोस कर अपनी भड़ास निकल सकते हो , पर ऐसी बहदुरी करने का साहस न कर सभी लोग खाक हो चुके मेरे शव को लकड़ी दे परिक्रमा कर वही शोकसभा आयोजित करके मेरे परिजनो को मेरे न रहने का दुख सहन करने कि ताकत परमात्मा दे, ये कोरे शब्द किसी नसेलची के किए गए नशे की खुराक की तरह बोलकर चल दोगे। कोरे अर्थात खाली, शून्य तिक्त ... ये शून्य तिक्त शब्द अर्थहीन है ,क्योकि इन्हे सिर्फ आपके होंटों ने छुआ है ये हृदय की गहराइयों से निकले शब्द नहीं है।

मेरा शरीर शमशान मे खाक हो चुकने के बाद मेरे जीवन के जुड़े मेरे प्रसंगो को याद कर लोगों को सुनकर मुझे श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। जिसे मेरे जीते जी संपर्क में जो अच्छाई या बुराई मुझमे दिखी वह दुख से साथ याद कर मेरी याद को जिंदा रखने के लिए अपने अपने प्रयास करेगा ओर अधिकारियों से मांग कर ज्ञापन सौपेगा ओर फोटो के साथ समाचार पत्रों में छपवाएगे। मेरी आत्मा मेरे मरने कि सभी शोक सभाए सुनती, किन्तु मेरे स्वजन जिनकी दी गई व्यथा की आग में दिनरात घुल-घुल कर मेरी मौत हुई यह बात की मेरी आत्मा अकेली साक्षी रही है ओर वह गवाही देने तो आएगी नहीं, हा पंद्रह दिन एक महीने बाद मेरा जिक्र ही समाप्त हो गया ओर जैसे मेरे पैदा होने से पहले दुनिया चल रही थी, मेरे मरने के बाद भी वैसे ही दुनिया चलती रहेगी॥



- आत्माराम यादव पीव


पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्रीयता और जन जागरण : महात्मा गांधी


महात्मा गांधी की पत्रकारिता शैली एवं दर्शन आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी आजादी के अनुभूति है। अगर समाचार पत्रों में भाषा का स्तर गिर रहा है तो इसके पीछे महात्मा गांधी द्वारा अपनाई गई भाषा की शुद्धता एवं सरोकार के मुद्दों का आभाव है। महात्मा गांधी की नजर में पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्रीयता और जन जागरण था। वह जनमानस की समस्याओं के मुख्यधारा की पत्रकारिता में रखने के प्रबल पक्षधर थे। शब्द किसी हथियार से कमतर नहीं है। इन्हीं को ध्यान में रखकर महात्मा गांधी अपनी पत्रकारिता करते थे। उनकी राय में पत्रकारिता एक सेवा है। पत्रकारिता को कभी-भी निजी हित या आजीविका कमाने का जरिया नहीं बनना चाहिए। उन्होंने अपनी पत्रिका का प्रसार बढ़ाने के लिए किसी गलत तरीके का इस्तेमाल नहीं किया, ना ही कभी दूसरे अखबारों से स्पर्धा की। अंग्रेजी का अखबार निकालने में उनकी कोई विशेष रुचि नहीं थी। उन्होंने हिंदी और गुजराती में नवजीवन के नाम से नया प्रकाशन शुरू किया। इनमें वे रोजाना लेख लिखते थे। उनके अखबारों में कभी-कोई सनसनीखेज समाचार नहीं होता था। वे बिना थके सत्याग्रह, अहिंसा, खान-पान, प्राकृतिक चिकित्सा, हिंदू-मुस्लिम एकता, छुआछूत, सूत काटने, खादी, स्वदेशी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और निषेध पर लिखते थे। वे शिक्षा व्यवस्था के बदलाव और खानपान की आदतों पर जोर देते थे।





गांधी जी का मानना था कि जब बाजार की सभी लाठियां और चाकू बिक गए तो एक पत्रकार यह अनुमान लगा सकता है कि दंगे होने वाले हैं। एक पत्रकार की जिम्मेदारी है कि वह लोगों को बहादुरी का पाठ सिखाए, ना कि उनके भीतर भय पैदा करे। गांधी जी ने कभी-भी कोई बात सिर्फ प्रभाव छोड़ने के लिए नहीं लिखी, न ही किसी चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया। उनके लिखने का मकसद था, सच की सेवा करना, लोगों को जागरुक करना और अपने देश के लिए उपयोगी सिद्ध होना। वे लोगों के विचारों को बदलना चाहते थे। भारतीयों और अंग्रेजों के बीच मौजूद गलतफहमियों को दूर करना चाहते थे। उन्होंने कहा था कि मैंने एक भी शब्द बिना विचारे, बिना तौले लिखा हो या किसी को केवल खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जान-बूझकर अतिशयोक्ति की हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। उनके प्रतिष्ठित पाठकों में भारत में गोपाल कृष्ण गोखले, इंग्लैंड में दादाभाई नौरोजी और रूस में टॉलस्टॉय शामिल थे। उन्हें यह बात बताने में गर्व का अनुभव होता था कि नवजीवन के पाठक किसान और मजदूर हैं, जो कि असली हिंदुस्तानी है।

गांधीजी की पत्रकारिता का सफर अफ्रीका से शुरू होता है। वहां पर एक कोर्ट परिसर में गांधी जी को पगड़ी पहनने से मना कर दिया गया और कहा गया कि उन्हें केस की करवाई बिना पगड़ी के ही करनी होगी। जिसके कारण गांधी जी को अपनी पगड़ी को कोर्ट परिसर में ही उतारनी पड़ गई। अगले ही दिन गांधीजी ने डरबन के स्थानीय संपादक को पत्र लिखकर इस मामले पर अपना विरोध जताया। विरोध के तौर पर लिखी गई उनकी चिट्ठी को अखबार में जस का तस प्रकाशित किया। यह पहली बार था जब गांधी जी का कोई लेख अखबार में प्रकाशित हुआ था। इस प्रकार से गांधी जी की पत्रकारिता का सफर एक दुखद परिस्थिति से शुरू होती है। इसके बाद शायद गांधी जी को यह बात समझ में आ गई थी कि पत्र-पत्रिकाएं ही वह माध्यम है जिसके द्वारा अपनीं बातों को लोगों तक आसानी से पहुंचा सकते हैं। इसके बाद गांधी जी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अब वह अपनी बातों को लोगों तक पहुंचाने के लिए लेख के रूप में पत्र-पत्रिकाओं में छपवाने लगे।

सन 1888 से लेकर 1896 तक का समय गांधी जी के पत्रकारिता के संपर्क में आने और स्थापित होने का समय कहा जा सकता है। गांधी जी अखबारों के नियमित पाठक 19 साल की उम्र में इंग्लैंड पहुंचने के बाद बने। 21 साल की उम्र में उन्होंने 9 लेख सरकार के ऊपर एक अंग्रेजी साप्ताहिक वेजिटेरियन के लिए लिखे। दक्षिण अफ्रीका पहुंचने पर गांधी जी ने भारतीयों की शिकायतों को दूर करने और उनके पक्ष में जनमत जुटाने के लिए समाचार पत्रों में लिखना शुरू किया। जल्द ही उन्होंने भारतीय समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष करने हेतु पत्रकार बनने की आवश्यकता महसूस हुई और अफ्रीका में ही उन्होंने अपने संपादकत्व में इंडियन ओपिनियन नामक साप्ताहिक पत्र निकाल दिया। उस दौर में उन्होंने इस अखबार को पांच भारतीय भाषाओं में प्रकाशित किया। गांधी जी ने अपनी साहित्यिक प्रेम को भी बखूबी तौर से निभाया और कई दशकों तक साहित्यिक लेखक और पत्रकार के रूप में कार्य किया तथा कई समाचार पत्रों का संपादन भी किया। महात्मा गांधी ने उस समय में जब भारत में पत्रकारिता अपने शैशव काल में थी, पत्रकारिता की नैतिक अवधारणा प्रस्तुत की। गांधी ने जिन समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन अथवा संपादन किया, वह अपने समय में सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रों में माने गए, जिनको जानना आज के युवा पीढ़ी के लिए बहुत जरुरी हो गया है।

भारत आने पर युवा भारत के संपादकीय दायित्व को भी संभाला और साथ ही यंग इंडिया और नवजीवन का संपादन भी शुरू किया। 1893 में गांधी जी ने हरिजन बंधु और हरिजन सेवक को क्रमश: अंग्रेजी, गुजराती और हिन्दी में शुरू किया। इन पत्रों के माध्यम से उन्होंने अंग्रेजों पर आंदोलन का संचालन किया। गांधीजी ने चार दशकों के पत्रकारिता काल में कुल 6 पत्रों का संपादन किया। उन्हें समाचार पत्रों का प्रकाशन कई बार बंद करना पड़ा, लेकिन वे ब्रिटिश सरकार की नीतियों के आगे झुके नही। गांधी जी की गिरफ्तारी हुई और उनके पत्र बंद हुए लेकिन मौका मिलते ही उनके प्रकाशन में जुट जाते थे। गांधीजी सबसे महान पत्रकार हुए हैं।

- डॉ. नन्दकिशोर साह


13 September 2024

कविताः तोहफा



मुझे
कभी न देना
कोई तोहफा
मेरे सबसे प्यारे दोस्त…
देना कभी
कोई खूबसूरत मँहगी कलम
जम जाए कुछ रोज़ में जिसकी स्याही
और थका दे मेरा मन
उसके चलने का भारीपन
न खुद से दूर कर पाऊँ
और न ही जिसे हर पल पास रख पाऊँ…
न देना कभी
कोई ग्रीटिंग कार्ड
जो सप्ताह या माह भर बाद
लगने लगे पुराना
बीतती तारीखों के साथ
हो जाए अप्रासंगिक
और कर दिया जाए
किन्हीं पुरानी फाइलों में दबे
चाहे-अनचाहे भावमय शब्दों के
बाकी नए पुराने
ग्रीटिंग्स के साथ नज़रबंद…
न देना कभी
कोई फूल या गुलदस्ता
कि जिसके मुरझाने पर
मुरझा जाए मेरा ही दिल,
शाम ढले
मुरझा कर तिरस्कृत हो
गुलदान से निकाल दिया जाना
यही हो जिसकी नियति,
न देना मुझे
उसे फेंक दिए जाने का दर्द…
.
न देना कभी
मुझे कोई लिबास
कि जिसमें लिपट
रंगने लगूँ तुम्हारे रंगों में
इस कदर
कि सपनों से तैर जाओ तुम
मेरी सम्मोहित आँखों में,
और तुम्हारे पास होने के भ्रम पर
तड़प कर रो पड़ें मेरी आँखें…
कुछ देना
तो देना बस
समय के बेशकीमती सागर से चुरा
अनमोल पलों के बेहिसाब मोती...
जिन्हे कैद कर मन की सीप में
खोई रहूँ फिर
जीवन की लहरों में
हमेशा ! हमेशा ! हमेशा !

- प्राची



12 September 2024

सोशल मीडिया और भारतीय नागरिक!

सोशल मीडिया को भारत में आए हुए करीब 17 या 18 साल हो गए हैं। 2014-15 के बाद से भारत में सोशल मीडिया का एक अलग ही नशा चढ़ा जो भारतीय समाज से उतारने का नाम ही नहीं ले रहा है। सोशल मीडिया आज पूरे विश्व के लिए एक मुसीबत बन गई है। इसके प्रभाव को कम करने के लिए विभिन्न देशों ने अपने देश में अलग-अलग कानून और नियम बनाए हैं। सोशल मीडिया के प्रभाव को देखते हुए अब भारत में भी सोशल मीडिया को लेकर कठोर कानून बनाए जाने की जरूरत है।



सोशल मीडिया का जितना अच्छा प्रभाव है, उतना ही नुकसान भी है। पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया के कारण क‌ई ऐसे केस सामने आए हैं, जो हमारे समाज के लिए चिंताजनक या फिर खतरनाक है। इसके अलावा इन दिनों युवाओं और महिलाओं से लेकर हर किसी में सोशल मीडिया के जरिए लोकप्रिय होने की होड़ मची हुई है। इसके लिए लोग विभिन्न प्रकार की हरकतें करते हुए दिखाई दे देते हैं। उदाहरण के लिए- महिलाओं का अंग प्रदर्शन करना और युवाओं का जान को जोखिम में डालकर वीडियो बनाना आदि। इनके अलावा क‌ई ऐसे उदाहरण हैं जो हमारे समाज के लिए कैंसर का काम कर रही हैं।

आज सोशल मीडिया पर देश का लगभग हर युवा अपना वक्त बर्बाद कर रहा है। चाहे वह घंटों रील देखना हो या फिर चैट करना या इत्यादि वीडियो देखना हो। सोशल मीडिया के आने के बाद से विभिन्न प्रकार की बीमारियां भी हमारे समाज में बढ़ी हैं जैसे- डिप्रेशन और आंखों का कमजोर होना इत्यादि। भारत की जनसंख्या 140 करोड़ से अधिक है और हर देश भारत का डाटा इकट्ठा करना चाहता है। अगर सीधे शब्दों में कहूं तो अमीर देशों द्वारा डाटा के माध्यम से हमें मानसिक गुलाम बनाया जा रहा है। आज हम अपने फोन के सामने अगर कुछ खरीदने को लेकर बात करते हैं तो हमें हमारे फोन में उस चीज के विज्ञापन दिखाई देने लगते हैं। क्या यह मानसिक गुलामी का संकेत नहीं है ? मेरा मानना है यह मानसिक गुलामी का संकेत नहीं बल्कि मानसिक गुलाम हमें बनाया जा चुका हैं।

बतौर भारतीय नागरिक हम सभी को इस पर विचार करना चाहिए कि सोशल मीडिया हमारे जीवन और समाज के लिए कितना जरूरी है ? और हम सोशल मीडिया में अपना कितना समय बर्बाद कर रहे हैं ? इसके इस्तेमाल से हमें क्या फायदे और क्या नुकसान हो रहे हैं ? क्या जीवन का मकसद सिर्फ लोकप्रिय होना रह गया है ?


- दीपक कोहली